
जीवन का सारांश निराशा
जीवन का सारांश निराशा।
झूठमूठ है हर इक आशा॥
भीतर ही भगवान छुपा है
बाहर तो बस खेल तमाशा॥
सपने में सोना जगना क्या।
दूर स्वयं से ही भगना क्या॥
नींद खुले तो दिखे सत्य सब
मन की माया में लगना क्या॥
बाहर की दुनिया हो हावी
भीतर जब जब जगे हताशा॥
भगवत्ता की अनुभूति कर।
अजर अमर हो सभी विनश्वर॥
क्षणिक जन्म मृत्युमय जीवन
बने अमित आनंद परात्पर॥
जग जाए एकत्व सभी में
छटे हटे सब भेद कुहासा॥
मेरे भीतर तेरापन हो
तेरे भीतर मेरापन हो।
इस तेरे मेरेपन भीतर
आलौकिक आनंद सघन हो॥
होवे ख़ास मिठास दिलों में
मधुर अधर हो मधुरिम भाषा॥
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– संदीप त्यागी ’दीप’