
पावन प्रेम तुम्हारा पाकर
पावन प्रेम तुम्हारा पाकर
पूजनीय हो जाऊँगा।
शरच्चंद्र के जैसा इक दिन
मैं भी पूजा जाऊँगा॥
मेरे कृष्णपक्ष पर कोई
ध्यान कभी भी नहीं दिया।
तुमने मान मयंक मुझे निज
आजीवन सकलंक जिया॥
मुझमें तो थी कहाँ योग्यता
लेकिन फिर भी हे वरदे।
तुमने मुझको स्वीकारा
सर्वस्व स्वीय शुभ सादर दे॥
वधु बनकर तुम मधुर मधुर
जीवन की मधुराधार बनी।
देवि सच्चा प्यार बनी सुख
सपना मम साकार बनी॥
ख़ुशियों की कलियाँ खिल
उट्ठीं ऐसी बसंत बहार बनी।
मेरे सूखे मन आँगन में
सावन की बौछार बनी॥
मेरा राग मल्हार बनी
अंतर् स्वर सुख शृंगार बनी।
प्रणयी अपना मुझे बनाके
मेरा घर संसार बनी॥
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– संदीप त्यागी ’दीप’