
अड़तालीस घंटे
– शैल अग्रवाल
अँधेरा अब भी चारों तरफ पसरा पड़ा था और इक्की-दुक्की कारों के अलावा ट्रैफिक शांत ही था, वरना लंदन कब सोता है! घड़ी देखी तो सात बजकर दस मिनट हो चुके थे। रौशनी हलकी-हलकी फटनी शुरू हो ली थी। कितना वक्त लगता है रोज मात्र दो मील के इस सफर में जबकि सुबह सात बजे ही घर छोड़ देती है वह।… आज बस, पाँच मिनट लेट हो गई तो नतीजा यह कि दस की जगह तीस मिनट और लग गए छोटे से इस रास्ते में। ट्रैफिक जाम में फँसी तीन-बार मुझसे झड़प चुकी है—”सुबह-सुबह यूँ अखबार लेकर बाथरूम में बंद होने की आदत छोड़ो, अब। खुद तो लेट होते ही हो, देखना, मुझे भी मरवाओगे तुम एक दिन।”
सच कहूँ तो इन छोटी-मोटी नोक-झोंकों के बिना हमारी कोई सुबह ही नहीं होती कभी।
फ्लैट से रिया का क्रैश और फिर अस्पताल… बस यही रोज का सफर है। पौने आठ तक पहुँच जाए तो ठीक, वरना अगले दस मिनट में ही कार पार्क इतना भर जाता है कि मनचाही जगह तो छोड़ो, एक खाली जगह तक के लिए भी अस्पताल के वी.आई.पी. कार पार्क के चार-चार चक्कर लगाने पड़ जाते हैं सीनियर रजिस्ट्रार डॉ. नंदिनी सिंह को, जबकि सिर्फ डॉक्टरों के लिए ही सुरक्षित है यह पूरा कार पार्क।
और तब मुझे छोड़ना पड़ता है ताकि वह पार्किंग का समय बच जाए।
बॉस मिस्टर रॉबिंसन तो पहले ही पहुँच जाते हैं वार्ड में, कई बार बताया है उसने मुझे।
“पहले? क्या पता, रात भर सोते भी हैं या सुबह अस्पताल जाने की तैयारी में ही बैठे-बैठे पूरी रात गुजार देते हैं… या फिर शायद घर जाते ही न हों… बीवी से पटती ही न हो और घबराकर यहीं दुबके बैठे रहते हों, देखो तुम कितने लकी हो, कम-से-कम घर लौटने से डरना तो नहीं पड़ता तुम्हें।”
“…आखिर किस दंपति में नोंक-झोंक नहीं होती नंदू… दो बर्तन साथ-साथ होंगे तो खटकेंगे ही। क्या हमारी कम लड़ाई होती है?”
…पर नंदिनी के लिए तो यही सबसे बड़ा कौतुक और मजाक था मिस्टर रॉबिंसन को लेकर। सोचता हूँ, सही-सही जान पाती तो कम-से-कम चेहरे पर चिपकी इस अविश्वनीय और खिसियाई मुस्कान से तो छुटकारा पाही लेती वह, जो ‘आज फिर करीब-करीब तुमने सुबह का वार्ड राउंड मिस ही कर दिया था’ इस कथन की स्मृति मात्र से ही बरबस होंठों पर चुपक जाती है। मुझे पूरा विश्वास है कि ‘पर किया तो नहीं सर!’…उत्तर भी जरूर ही देना चाहती होगी मेरी तेज तर्रार नंदिनी, पर मर्यादावश कुछ नहीं कह पाती होगी। आखिर पति और बॉस में यह फर्क तो है ही, सोचते-सोचते उस तनाव भरी मनःस्थिति में भी आखों को एक क्षीण शरारती चमक गुदगुदा गई। घड़ी देखी तो अब भी दो मिनट शेष ही थे।
“तुम भी… बस्स,’ कहती गर्दन झटकती उतर गई वह, दौड़ती-भागती-सी ही।
घर से चली थी तब भी हमेशा की तरह ही, वैसे ही मुस्कुराती, दौड़ती-भागती और व्यस्त ही तो थी नंदिनी। पर सबकुछ सामान्य होने के बावजूद, जाने क्यों मैं आज पल भर के लिए भी खुद को उससे, उसके खयालों से अलग नहीं कर पा रहा हूँ। इम्तिहान की तैयारी के लिए छुट्टी ली थी, पर पढ़ाई तो दूर, बेवजह ही फ्लैट में बिखरी यह खामोशी और बेचैनी, एक अपराधबोध…जाने किस अनजाने अनिष्ट की आशंका बनकर ले डूबी है मुझे।
रिया तो ठीक है ना…कहीं उसकी तबीयत तो खराब…आज फिर गोदी से उतर ही नहीं रही थी। कितना परेशान करती है यह रिया भी सुबह-सुबह! पर करे भी तो क्या करे, नौ महीने की ही तो है और फिर नैनी भी तो नई; इतना विश्वास भी तो नहीं किया जा सकता कि दिनभर के लिए अकेला छोड़ दें, अपरिचिता के साथ। अस्पताल से पाँच मिनट दूर यह अस्पताल के कर्मचारियों के लिए बनी नर्सरी ही ज्यादा सुरक्षित जगह लगती है; मन चाहे जब आसानी से देख तो लेती है नंदिनी रिया को वहाँ जाकर, जब भी वक्त मिले, मन चाहे।
थोड़ी अधिक अनमनी और चुप थी आज रिया। कहीं…छि…छि, मैं भी बेवजह ही पता नहीं क्या-क्या सोचने लग जाता हूँ। अपनी सोच को धिक्कारते हुए मैंने सामने रखी हँसती-मुस्कुराती रिया की तस्वीर पर एक प्यार भरी नजर डाली। इतनी सुबह-सुबह उठना, तैयार होना कभी-कभार तो ठीक है, पर रोज-रोज तो कोई भी बच्चा परेशान करेगा, माँ-बाप की तरह उसकी भी तो डूयूटी लग गई है; सुबह साथ-साथ उठकर तैयार होना और फिर क्रैश के लिए चल देना, दिन भर के लिए, मानो क्रैश नहीं, काम पर जाने की ड्यूटी ही हो। ‘मानो’ क्या, है ही, जाए बिना जिंदगी भी तो नहीं चल सकती उनकी। महत्वाकांक्षा की आँच पर रखा यह पतीला थोड़ा-बहुत तो उबले और खनकेगा ही। उबलेगा और खनकेगा क्या, वक्त बेवक्त जलेगा भी और बदरंग भी होगा, पर खाना खाना है तो बर्दाश्त करना पड़ता है, यह भी। व्यस्त माँ-बाप के रहते बच्चों को ऐसी परेशानियों से तो गुजरना ही पड़ता है। देखना, पर ठीक रहेगी हमारी रिया भी… ऐसे ही हँसती-मुस्कुराती, उसी के लिए तो सारी खुशियाँ सहेजना चाह रहे हैं आखिर, हम दोनों।
बेटी को याद करते ही तने चेहरे पर खुद-ब-खुद मुस्कुराहट तैर आई…है भी तो बेहद नटखट..गोल-गोल रूई के फाहे-सी..नरम और प्यारी, बिल्कुल कैंडी फ्लॉस की तरह। जब अपने नीचे के नन्हे-नन्हे दो दाँतों के साथ लार गिराती मुझे देखकर मुस्कुराती है, तो मन करता है कि उठा कर खा ही जाऊँ इसे। अब तो पा..पा..पा..पा…कहती, देखते ही लपककर गोदी में भी आ जाती है, जैसे मानो कितना मिस किया हो दिनभर इसने मुझे।
अस्पताल से छुट्टी ली थी कि थोड़ा पढ़ूँगा, थोड़ा आराम करूँगा पर अपने ही घर में आराम करना मुश्किल और असंभव हो सकता है, मुझे पहली बार पता चला।! बेचैन परिंदे की तरह कहीं भी स्थिर नहीं हो पा रहा था मैं। वक्त गुजारने को बेवजह ही टेलीविजन खोलकर चैनल बदलने लगा। मन था कि कहीं टिक ही नहीं रहा था। शेयर बाजार में नहीं, देश-विदेश की खबरों में नहीं, गरमागरम चटपटे बॉलीवुड के छवि संसार या मनभावन संगीत तक में नहीं। फिर सोचा, फुरसत मिली है तो महीनों से बिखरे और जमा इन पत्रों का ही जवाब दे दिया जाए; शायद उस व्यस्तता में ही मन की इस निरर्थक दुश्चिंता से मुक्ति मिले…।
टेलीविजन बंद करने ही जा रहा था कि अचानक ही चल रहा कार्यक्रम रोकते हुए, आपातकालीन ‘अभी-अभी खबर मिली है’ की अप्रत्याशित और बेचैन करने वाली आवाज ने और धुएँ भरी एक के बाद एक आती तस्वीरों ने मुझे कुरसी से उठाकर वापस वैसे ही तानकर सीधा खड़ा कर दिया, जैसे कि पहले मैं खिड़की के पास बेहद उद्विग्न मनःस्थिति में खड़ा था…एक बार फिर दोनों मुट्ठियाँ कसकर भिंची हुई थीं, माथे की नस किसी अप्रत्याशित आशंका में बेवजह लपलप कर रही थी।
टेलीविजन को वैसे ही खुला छोड़कर अब मैं फिर से वरांडे में खड़ा था और फिर तुरंत ही रेलिंग छोड़, हाथ बाँधकर कमरे में वापस चहलकदमी कर रहा था। नंदिनी से संपर्क तो हर हाल में करना ही होगा और तुरंत ही करना होगा। जो भी सुना और देखा था, पूर्णतः विचलित करने के लिए पर्याप्त था। अब तो उस अनचाहे भय ने अजगर बनकर पूरा ही निगल लिया था मुझे। सूखते गले से बार-बार थूक निगलता मैं बेचैन था, नंदिनी का हाल-चाल जानने के लिए, रिया को वापस घर लाने के लिए। प्रार्थना कर रहा था दोनों की पूर्ण सलामती की…बेहद डर रहा था, कहीं किसी अप्रिय खबर का सामना न करना पड़ जाए। कैसा बेवकूफ हूँ मैं, खुद ही अपने प्रियजनों के अनिष्ट के बारे में सोच रहा हूँ, खुद को धिक्कारते हुए मैंने वापस अपने काम में मन लगाना चाहा, पर हाथ-पैर बेवजह ही सुन्न हुए जा रहे थे। नंदिनी मेरी बेहद व्यस्त पत्नी और रिया हमारी नौ महीने की असहाय, लाडली, बेहद नाजुक, फूल-सी बेटी..कैसी हैं, कहाँ हैं, मुझे कुछ भी तो नहीं मालूम था।
बाहर अचानक ही उठे पुलिस कारों और एंबुलेंस के दिल दहला देने वाले शोर ने मेरी तंद्रा को अब पूरी तरह छिन्न-भिन्न कर दिया था। बात इतनी उलझ जाएगी और एक आम सी दिखती सुबह यूँ आत्म परीक्षण के अड़तालीस घंटों में परिवर्तित होकर धैर्य की, साहस की इस तरह से अग्नि परीक्षा लेगी, यह सब कब सोच पाया था मैं भला। अगले अड़तालीस घंटे में जो भी हुआ, कल्पनातीत था। नंदिनी के लिए भी तो यह सब उतना ही अप्रत्याशित और विचलित करने वाला रहा होगा, जितना कि मुझे महसूस हो रहा है। भय भी तो आखिर संक्रामक ही होता है। मेरी भयभीत और बेचैन उँगलियाँ अब बार-बार नंदिनी के मोबाइल का नंबर मिलाने की कोशिश कर रही थीं, जो मन की सारी व्यग्रता और तत्परता के रहते भी लग कर ही नहीं दे रहा था।…
रोज के पहचाने रास्ते हो कर घर से घर तक आना-जाना भी इतना लंबा और भयावह हो सकता है सुबह-सुबह सोचा नहीं था नंदिनी ने! सुबह की ऑपरेशन लिस्ट का क्रम तो निर्धारित करके ही गई थी कल रात ही, फिर भी मन-ही-मन एक-एक मरीज के क्रम और खास जरूरतों को याद करती, दोहराती नंदिनी ने अपने उसी पुराने मनचाहे कोने में कार खड़ी कर दी। जाने क्यों उसे लगता है कि यही कोना भाग्यशाली है उसके लिए। जिस दिन यहाँ पर जगह मिल जाती है, दिन अच्छा गुजरता है उसका। न मरीज परेशान करते हैं, न सहकर्मी और ना ही खुद को भगवान समझने वाले उसके बॉस मिस्टर रॉबिंसन।
अभी वह मुश्किल से गाड़ी के बाहर निकल ही पाई थी कि मोबाइल की घंटी और तीन-तीन कॉल वेटिंग की फ्लैशिंग लाइट्स ने पुकारना शुरू कर दिया। माँ, शोभित और मिस्टर रॉबिंसन तीनों ही एक साथ याद कर रहे थे उसे। नंदिनी की जिंदगी के तीन प्रमुख वी.आई.पी।… किसको जवाब दिया जाए और किसे रोका जाए, पल भर की ही उलझन थी। स्पष्ट था कि कितना भी जरूरी हो, अस्पताल की कॉल ही ड्यूटी के वक्त की प्राथमिकता और पहली पुकार है। एक कर्तव्यनिष्ठ और अपनी जिम्मेदारियों के प्रति जागरूक डॉ. नंदिनी सिंह ने मिस्टर रॉबिंसन का नंबर ही सबसे पहले घुमाया। आवाज रौबीली, घबराहट भरी और शीघ्रता की तत्परता लिए हुए थी तुरंत ही थियेटर नं. 2 के बाहर मिलो। आपातकालीन स्थिति है।’
“आपातकालीन स्थिति…?” नंदिनी भौंचक्की थी, थोड़ी भयभीत भी।
कैसे भी कार का दरवाजा बंद करती, खुद को सँभालती दौड़ पड़ी थी वह।
अच्छी खासी भीड़ जमा थी वहाँ पर।
नर्स, डॉक्टर, लैब टैक्नीशियन व पूरा का पूरा थियेटर स्टॉफ सभी मौजूद थे। किंगक्रॉस रेलवे स्टेशन पर और तीन-चार जगह और आतंकवादी हमले हुए हैं। भारी क्षति हुई है और बड़ी संख्या में लोग घायल भी। तीन मुख्य अस्पताल जहाँ घायल अगले दस मिनट में आने शुरू हो जाएँगे, उनमें से एक उनका अस्पताल भी था और अब सैनिक क्षमता की तैयारी के साथ पूरी टीम को तैयार व सतर्क रहना होगा। सोच मात्र से पेट में उमड़ती ऐंठन को काबू करती नंदिनी ने खुद को कैसे भी संयत करने की कोशिश की… उसके सामने एक व्यस्त और जिम्मेदारी भरा दिन खड़ा था। जाने कैसे-कैसे भयावह निर्णय लेने पड़ेंगे, नंदिनी उस कठिन दिन के बारे में सोचने तक में खुद को अक्षम पा रही थी।
स्थिति की गंभीरता और सारी बातें समझती-बूझती नंदिनी पाँच मिनट को लेडीज टॉयलेट के एकांत में ही, बात करने लायक वक्त निकाल पाई थी। उसे पता था कि घर पर संपर्क करना कितना जरूरी है इस वक्त, शोभित और माँ भी यह खबर सुनकर जरूर ही उसका हाल-चाल जानने के लिए परेशान हो रहे होंगे जितना कि वह खुद रिया की सुरक्षा को लेकर है। पता चला है कि लंदन ब्रिज के आसपास का सारा इलाका सील कर दिया गया है और रिया की नर्सरी भी तो ठीक वहीं पर है। बाहर सन्नाटे को चीरती पुलिस कारों और एंबुलेंसों का शोर स्थिति और वातावरण को और भी गंभीर और असह्य कर रहा था। कई बार फोन लगाने के बाद पल भर को बड़ी मुश्किल से शोभित से बात हो पाई थी… “थियेटर जा रही हूँ। आपातकालीन स्थिति है…कब तक लौटूँगी, अभी कुछ कह नहीं सकती। तुम अपना और रिया का ध्यान रखना” बस ! इतना ही कहकर तुरंत फोन वापस रख दिया था नंदिनी ने। हमेशा की तरह आज भी बेहद जल्दी में ही थी नंदिनी।
“अभी-अभी पता चला है कि लंदन ब्रिज के आसपास का सारा इलाका सील कर दिया गया है। माना, अपनी रिया की नर्सरी वहीं पर है, पर देखना उसे कुछ नहीं होगा… बहुत लंबी उम्र है हमारी रिया की।”
कहते-कहते रो पड़ी थी नंदिनी। उसकी कांपती आवाज की गूंज खुद मेरे अपने गले में भी तो आ अटकी है।
“तुम परेशान मत होना। मैं अभी, तुरंत ही, कैसे भी रिया को घर सुरक्षित लेकर आता हूँ।”
अपनी तरफ से समझाने और सांत्वना देने की भरपूर कोशिश की थी मैंने, परंतु कहीं कुछ था जो भय और घबराहट बनकर अटक गया था आसपास और मेरे गले में भी।
कार में रिया की सीट तक नहीं थी। रिया हमेशा नंदिनी के साथ और उसी की ही कार में घर से बाहर आती-जाती है और मैं बेवकूफ की तरह घबराहट में अपनी ही कार लेकर दौड़ पड़ा हूँ, जबकि नंदिनी की कार बगल में ही खड़ी थी। कैसे भी कार के फर्श पर अपना कोट बिछाकर और अपनी पैंट की बेल्ट से अगली सीट के पाए के साथ उसे सीक्योर कर धीरे-धीरे कार चलाता, इधर-उधर गलियों से बचता-निकलता, मैं नन्हीं रिया को घर तो ले आया, पर मुझे यह अनुमान नहीं या कि अगले अड़तालीस घंटे तक न सिर्फ मुझे रिया के माँ-बाप दोनों का ही फर्ज निभाना था, अपितु हफ्तों रिया की माँ और खुद को…पूरे विक्षिप्त परिवार को भी इस अप्रत्याशित सदमे से उबरने में ही गुजराने होंगे। बाहर का आतंक बंद दरवाजों से कैसे बेहद सुरक्षित आम घरों तक में घुस आता है, अचंभा था मुझे…’बेफिक्र और एक खुशहाल जिंदगी जीते, यार-दोस्तों के संग हर शाम बियर के पैग पीकर ठहाके लगाने वाले डॉ. शोभित सिंह दुनिया में ऐसे अनुभवों से भी गुजरना पड़ता है कभी-कभी।’ यही तो जिंदगी है—मैंने खुद को समझाने की कोशिश की—मर्द और वह भी सिंह…कम से कम मुझे तो विचलित नहीं ही होना चाहिए। परंतु यह एक अप्रत्याशित, हताशा भरा, कठिन अनुभव था, मेरे लिए भी।
मैं स्तंभित था। ग्लानि से भरा, चुप था। नंदिनी इतनी व्यस्त है… अकेली ही सब कुछ झेल रही है और मैं कुछ नहीं कर सकता। स्थिति चिंतित करने वाली और कल्पनातीत थी। चिंता थी मुझे नंदिनी के आराम को लेकर, उसके स्वास्थ्य को लेकर। पेट में हजारों घुमावदार ऐंठन देने वाली वह बेचैनी जब असह्य हो चली तो बेमतलब ही फिर से कमरे के चक्कर लगाने लगा। बार-बार फोन के ठीक से रखे रिसीवर को उठाकर चेक करता कि रिसीवर ठीक से रखा भी है या नहीं। क्या पता कब नंदिनी को मेरी जरूरत पड़ जाए!
अड़तालीस घंटों तक पत्नी का मोबाइल अनुत्तरित रहने के बाद, पहली बार जवाब के रूप में वह अपरिचित हैलो भी बेहद सांत्वना दे रही थी।
“हाँ, हाँ, डॉ. सिंह। मैं थिएटर नर्स सान्ड्रा बोल रही हूँ। आपकी पत्नी ठीक हैं। आखिरी केस अभी-अभी सिलकर बंद किया है उन्होंने। केस पूरा होते ही, ऑपरेशन थियेटर के बाहर आते ही, तुरंत आपसे बात करेंगी। आप उन्हें लेकर कतई परेशान न हों। बेहद थकी हुई जरूर हैं, पर ठीक हैं और सुरक्षित हैं। मुझे आपको यही संदेश देने को कहा गया है।”
माँ के बिना बड़ी मुश्किल से रो-रोकर सोई रिया की भी चिंता थी मुझे। सोती रिया उठ न जाए, इसलिए अपनी बेचैनी को बेआवाज दबाते हुए जैसे-तैसे अगले तीस मिनट निकाल दिए मैंने। नंदिनी के फोन का बेसब्री से इंतजार था। 48 घंटे हो चुके थे नंदिनी से बात किए बगैर। पता नहीं पल भर को भी सोई भी थी या नहीं वह!
फोन की वह घंटी एक करेंट की-सी तीव्रता के साथ मेरे हाथ-पैरों से गुजर गई। “हाँ नंदू कैसी हो? ठीक तो हो, ना? बेहद थकी हो? सुनो अपनी कार को वहीं पार्क में ही रहने दो। मैं लेने आता हूँ तुम्हें।” नंदिनी कुछ बोले भी, इसके पहले ही सवालों की झड़ी लगा दी थी मैंने। वाकई में बेहद चिंतित था मैं।
“नहीं, मैं ठीक हूँ। दस ही मिनट का ही तो रास्ता है। फ्रेश होकर आती हूँ, अभी।”
बेहद थकी और टूटी-फूटी भारी आवाज में इतना ही कह पाई थी नंदिनी। “तुम रिया के पास ही रहो। सुनो, घर के खिड़की-दरवाजे सब बंद रखना और बेवजह ही बाहर झाँकना, घूमना मत। अपना और रिया का ध्यान रखना। मैं बस आती हूँ।”
नंदिनी को सुनकर मन भर आया। उसे बस हमारी ही फिक्र थी, इस समय भी। इस समय तो उसे भी घर के अंदर और सुरक्षित होना चाहिए था…पास और साथ होना चाहिए था। खैर…जहाँ भी है, सुरक्षित रहे और सुरक्षित ही घर पहुँच जाए। पहली बार खुद को बेहद कमजोर, बेबस…परिस्थितियों के आगे पूरी तरह से लाचार महसूस कर रहा था मैं। पलभर में ही सब कुछ…जीवन…परिवार…एक ऐसे फूल की तरह लगने लगा था, जिसे किसी भी हालत में झड़ने नहीं दे सकता था मैं, पर फूलों की तरह ही जिंदगी को भी मुट्ठी में बंद करके तो नहीं रख सकता था मैं!
नंदिनी के लिए, अपने और रिया के लिए, बेहद धार्मिक न होते हुए भी, मन-ही-मन भगवान से निरंतर प्रार्थना किए जा रहा था। पूरे परिवार के जाने-अनजाने सब अपराधों के लिए बार-बार माफी माँग रहा था अब मैं। सब कुछ ठीक था फिर भी मेरे आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे।
इंतजार जब असह्य हो गया तो रिया को गोदी में लेकर खुले दरवाजे की ड्योढ़ी पर जा खड़ा हुआ और नंदिनी की कार के बगैर बेहद सूनी लगती सड़क को घूरने लगा। “क्यों इतनी उथल-पुथल, इतना उपद्रव करते हैं ये आतंकवादी, क्या सैकड़ों मासूमों की जानें और हजारों का दुख ही जवाब है इनकी माँगों का?”
बँधी मुट्ठियाँ और माथे की तड़कती नस अब चेहरे को ही नहीं, मेरे पूरे शरीर की एक-एक मांसपेशी तक को कसे जा रही थी।
आखिर… कार ड्राइव में आ ही गई और नंदिनी बिना कुछ बोले, हाथ पकड़कर मुझे और रिया को झपटती-सी कमरे के अंदर ले आई। मैं जानता हूँ रात के उस नीरव सन्नाटे में हमारी ड्योढ़ी पर कोई बम नहीं था, पर उसकी आँखें बेहद डरी-डरी और आँसू भरी थीं।
“…कैसे समझाऊँ तुम्हें, यह वक्त दरवाजे पर खड़े होकर इंतजार करने का नहीं है।” भरे गले से बस इतना ही कह पाई थी वह उस समय।
घर के बाहर का खुला पड़ा दरवाजा भी उसने ही चाभी से बंद किया था, पर कमरे में आते ही जूतों को वहीं फेंककर सोफे पर निढाल गिरी-सी बैठ गई थी बेहद थकी नंदिनी…ठीक मेरे सामने और चलचित्र-सी अभागी उस सुबह के हर पल को बंद आँखों के नीचे फिर-फिर के जीने लगी थी, शायद…। भरे गले से निकले वे शब्द बीचबीच में टूट रहे थे…और असह्य वह सदमा अंदर-ही-अंदर अभी तक तोड़े जा रहा था उसे।
” कार तो लकी जगह पर ही रुकी थी शोभित, फिर दिन ऐसा क्यों गुजरा?”
अनुत्तरित और बेबस, मैं देख रहा था कि कैसे चेहरे की एक-एक मांसपेशी और आँखों के नीचे पड़े काले गड्ढे, सारी कोशिशों के बाद भी, उसकी अभूतपूर्व थकान की चुगली किए जा रहे थे। सोई रिया को उसके बगल से उठाकर, उसके अपने बिस्तर में सुलाकर, एक बार फिर मैं पत्नी की बगल में जा बैठा था और आहिस्ता-आहिस्ता उसके आवेश से काँपते कंधों को दबाने लगा था। शायद थोड़ी थकान से ही राहत दे पाऊँ।… पर वह तो इतनी थकी हुई थी कि मेरे हाथों का बोझ भी असह्य था मेरी अपनी ही नंदिनी के लिए।ज
“चाय बना दूँ, पिओगी?” उसका ध्यान बाँटने को मैंने पुनः पूछा उससे।
पूछते ही, ढह गई वह। फफक-फफककर रोने लगी। “ऐसा क्यों शोभित… ऐसा क्यों? जानते हो चार-चार ऑपरेटिंग थिएटर लगातार चल रहे थे और डस्टबिन वाले बड़े-बड़े काले बैगों में भर-भरकर इनसानों के अवयव फेंक रहे थे हम। कितने मरे…यह तो छोड़ो। कितने अभागे अंग-भंग हुए, यह पूछो तुम। संज्ञाहीन हो गया था मन और मस्तिष्क। हमने प्रश्न पूछने बंद कर दिए थे। मशीनवत अपना-अपना काम करते जा रहे थे सभी। एंबुलेंस तो एंबुलेंस बसों में भर-भर कर घायल आए हमारे पास। जिसे जो मिला उसी में बैठकर अस्पताल ले आया गया…चाहे किसी भी हालत में हो। जिंदा-मुर्दा कैसे भी, पहले अस्पताल तो पहुँचे, फिर सोचा जाएगा कि क्या हो सकता है, बच पाएगा या नहीं। बात इतनी ज्यादा आपातकालीन थी। क्या यह सब करते समय उन हत्यारों ने कुछ भी नहीं सोचा…कैसे कोई इतना क्रूर, हृदयहीन हो सकता है, शोभित! बिना सोचे-समझे इतनी तबाही ला सकता है! और हम कैसे इन्हें ऐसा करने दे सकते हैं! बात बर्दाश्त के बाहर है! कैसे सिर्फ इसलिए कोई अपना सब कुछ खो दे कि वह गलत समय पर गलत जगह पर था! कोई जातीय दुश्मनी नहीं, कोई राग-द्वेष नहीं, असल में तो कोई जान-पहचान ही नहीं! फिर भी कीड़े-मकोड़े की तरह यूँ इतनी निर्दयता से, बेमलब ही मसल दिए जाएँ, जिंदगी से हाथ धोना पड़े?
क्या आज की इक्कीसवीं सदी में भी यह सब, ऐसे ही होना चाहिए! क्यों होने देते हैं हम लोग ऐसा! आखिर यह सब तोड़-फोड़ और भयानक जान-माल का नुकसान करने वाले भी तो हममें से ही एक हैं। हमारे बीच में रहते हैं और बीच में रहते हुए ही यह सारी खूंखार तैयारी करते हैं…घिनौने षड्यंत्र रचते हैं! कोई-न-कोई तो जानता ही होगा उन्हें! किसी के तो भाई, पति, बेटे होंगे ही वे ! इतनी बड़ी साजिश रचते हैं, उसे अंजाम देते हैं और किसी को पता तक नहीं चल पाता? क्या संभव है ऐसा, शोभित? थक गए थे हम लोग, लोगों के बम विस्फोट में चिथड़े-चिथड़े हुए हाथ-पैर सिलते और काटते-छाँटते, आँखें निकालते-निकालते। पिछले अड़तालीस घंटे पलक तक नहीं झपकाई है हम में से किसी ने। यंत्रवत् काम करती रही है पूरी टीम। कोई संवेदना नहीं, कोई जान नहीं। सुन्न थे हम सभी..। काश वे जिन्होंने ऐसा किया, देख पाते इस विनाश को, अपनी इस खूनी लिप्सा के विनाशकारी तांडव को! मेरी सहेली रेहाना को जानते हो ना तुम।’
अचानक ही नंदिनी की आवाज बेहद भारी हो गई और वह पूरी तरह टूटकर बिखरने लगी। मैंने पानी का भरा हुआ गिलास उसके सूखते होंठों से लगा दिया और उसकी पीठ को धीरे-धीरे सहलाने लगा। पर नंदिनी तो अपने दुख में डूबी मानो किसी दूसरी ही दुनिया में जा पहुँची थी।
“हाँ, वही रेहाना, जो तुम्हें बहुत सुंदर लगती थी।… हाँ वही, जो फैशन मॉडल थी…या यूँ कहूँ कि बनने जा रही थी…एक बेहद सफल और सुंदर मॉडल। जिसके सामने एक शानदार कैरियर और भविष्य बाँहें फैलाए खड़ा था। वही जिंदादिल और खूबसूरत रेहाना भी थी, वहाँ किंगक्रॉस पर, उसी अभागी ट्रेन में। और साथ में उसका सोहम भी।…वही सोहम शर्मा, जिसके साथ अगले महीने उसकी शादी होने वाली थी। बम ठीक सोहम की सीट के नीचे फटा था और जानते हो शोभित, सोहम के पैर की सारी हड्डियाँ चूर-चूर होकर एक बड़े धमाके के साथ किरच-किरच काँच के टुकड़े-सी, हवा में बिखर गई थीं। चारों तरफ गिरती सामने बैठी रेहाना के चेहरे में जा धँसी थी। उसकी दोनों आँख ले डूबी थीं। जीवन भर जिसने इतना प्यार किया, मरते-मरते इतने सारे दुख एक साथ ही दे गया वह उसे…या फिर हमेशा के लिए समा गया उसमें।… तिरोहित हो गया उसके अंदर ही। बत्तीस टांके तो सिर्फ आँखों के आसपास ही लगे थे। चेहरे पर जो लगे, सो अलग…। फिर भी तो कुछ भी नहीं बचा पाए हम, शोभित।… कोई जीवन नहीं, जीवन-साथी भी नहीं। और तो और रोटी-रोजी कमाने के लिए जिस रूप का सहारा ले रही थी, वह रूप तक नहीं रहा अब तो उसके पास…। चेहरा ऐसा कि अगर देख पाती तो खुद ही डर जाती। अब कोई सोहम नहीं है इस दुनिया में उसे प्यार करने के लिए, शादी करने के लिए… एक आम और खुशहाल जीवन देने और जीते रहने के लिए। वैसे तो अच्छा ही है कि आँखें नहीं रहीं, भयावह यह चेहरा कैसे देख पाती भला वह, तुम खुद ही सोचो। विश्वास मानो शोभित, हम सबने मिलकर बहुत कोशिश की थी कि कम-से-कम एक आँख तो बचा ही लें। कम-से-कम जी तो पाए वह। माना, बिना हाथ-पैर के जीवन कठिन है पर बिना आँख के तो भयावह और नीरस है…वह भी पच्चीस साल की उम्र में? कैसे जिएगी अब? कुछ भी तो नहीं कर पाई मैं, शोभित। कुछ नहीं कर पाई मैं उसके लिए।” ग्लानि और दुख में डूबी नंदिनी बार-बार खुद से ही सवाल पूछे जा रही थी और गोल-गोल उन यातनाओं के भँवर में डूबती-उतराती, हर पल पुनः पुनः जी रही थी, सह रही थी अकेले-अकेले ही सब कुछ। अब वह सिसकियों के साथ रोने लगी थी और में उसका दर्द बाँटने की कोशिश में, कुछ करने के बजाय, निःशब्द बुत बना उसे सुन रहा था। बीच-चीच में उसकी पीठ सहला लेता था, आँसू पोंछ लेता था।
“आखिर ऐसा क्यों शोभित… तुम्हीं बताओ ऐसा क्यों, क्यों हम इतने लाचार हैं?” कोई उत्तर नहीं था उसके सभी दंश देते सवालों का मेरे पास। अंदर से उठती विचारों की उबकाई चैन नहीं लेने दे रही थी। कैसे सहा होगा मेरी नंदिनी ने यह सब अकेले-अकेले ही। मुझसे जो सुना तक नहीं जा रहा था, नंदिनी उसी के बीच से गुजरी है। झेला है..। वह भी, पल-पल जीवन-मृत्यु की गंभीर जिम्मेदारी, युवाओं को अंगभंग करते समय एक असह्य अपराधबोध कांधे पर लिए हुए, बिना किसी विश्राम या ठहराव के… लगातार और यंत्रवत्।
रोते-रोते जब थक गई तो थकी नंदिनी का सिर मेरे काँधे पर एक ओर ढुलक गया और वैसे ही रोते-रोते ही सो भी गई वह। बह आए झाग और आँसुओं को थके मुँह और कंधे से पोंछकर मैंने वहीं सोफे पर आराम से लिटा दिया उसे। सिर के नीचे पास पड़ा कुशन लगा दिया और पास पड़ा कंबल उढ़ाकर चुपचाप कमरे के बाहर निकल आया।
नंदिनी को आराम की जरूरत थी। शरीर पर ही नहीं, आत्मा पर भी बहुत कुछ झेला और सहा था उसने पिछले अड़तालीस घंटों में।
बाहर बरामदे की रेलिंग पर झुककर सिर बाहर की ओर लटकाया तो अजीबो गरीब तस्वीरों ने मुझे एक बार फिर से घेर लिया। कहीं रिया की आँखों के गोले पड़े दिखलाई देने लगे तो कहीं अपने और नंदिनी के रेशे-रेशे हुए हाथ पैर…सिर और धड़, खून में लथपथ शरीर दूर कहीं…अलग-अलग बिखरे हुए। घबराकर अंदर को वापस दौड़ा। ऑक्सीजन की बेहद कमी महसूस होने लगी थी मुझे। ताजा हवा मानो गायब हो चुकी थी चारों तरफ से और अपनी ही धड़कनें इस कदर शोर कर रही थीं मानो कान में नगाड़े बज रहे हों।
“पर, यह तो एक सभ्य समाज है…विकसित देश है…यहाँ पर कैसे हो पाया यह सब?” कायर पड़ चुकी बुद्धि ने एक और सहमी-सी दस्तक देने की कोशिश की।
अँधेरी रात के उस नीरव सन्नाटे को चीरते, गश्त लगाती पुलिस कारों के सायरन अब भी मुझे दहला रहे हैं और अपने ही फ्लैट की बालकनी में अकेला खड़ा में बुत बन चुका हूँ, सोचे ही जा रहा हूँ—
“यह कैसा भय है, जो हादसे के पश्चात भी उद्विग्न कर रहा है, मन को ले डुबा है? हम तो खुशकिस्मत हैं। लंदन के बीचोबीच, उसी क्षेत्र में रहते हुए भी हाथ, पैर, आँख, नाक, कान, सब सही-सलामत हैं हमारे। हममें से कोई भी ट्रेन पर या स्टेशन के आसपास नहीं था वहाँ, जहाँ वे बम फटे थे। हमारा कोई नुकसान नहीं हुआ, फिर क्यों बेचैन हूँ मैं? थकी जरूर है, पर नंदिनी जिंदा है, मेरे पास है। रिया हमारे साथ है; मेरा परिवार और मैं सुरक्षित हूँ…फिर किस आशंका से इतना सहमा और भयभीत हूँ मैं?… आखिर क्यों?”…
अंदर कमरे में नंदिनी बेसुध सो चुकी है, पर उसके द्वारा उठाए सवालों और पिछले अड़तालीस घंटों की उन अप्रत्याशित घटनाओं ने हजारों अन्य लोगों की तरह मेरे अंदर भी एक आतंकी विस्फोट का रूप ले लिया है। सारे टूटे-बिखरे विचारों को समेटता-सहेजता, मैं बार-बार अंदर से उठती अपनी ही इस आवाज से परेशान हूँ—”ऐसा और कब तक…आखिर ऐसा क्यों…उन मृत और घायलों की जगह हम भी तो हो सकते थे।…थे क्या, हो ही सकते हैं…कहीं पर, और कभी भी। पर,… क्या वाकई में कुछ भी नहीं कर सकते हम?…”
*** *** ***