विच

शैल अग्रवाल

उसका यूं इस तरह से प्रकट हो जाना पूरी तरह से आलोड़ित कर चुका था उसे। ‘तू यहां पर कैसे?… मार्स और वीनस से कब लौटी?’ जैसे अनर्गल सवाल पूछती नेहा पुलक-पुलककर बारबार उसे ही देखे जा रही थी, रह-रहकर गले लगा रही थीं।

हंसी के फव्वारों और गपशप के चटकारों के बीच वाइन-भरे गिलास-सी जाने कब सामने आ बैठी थी वह। बीसियों साल बाद उसका यूं दावत में मिल जाना, अच्छा नहीं, बहुत अच्छा लग रहा था नेहा को… वह भी सात समन्दर पार बेगाने इस देश में।

‘दुनिया कितनी छोटी हो गई है, अब।’

बात वाकई में सच थी। रौदरम छोड़े उसे भी तो दस पन्द्रह साल हो हो गए हैं, पर यहां टैक्सस में इस तरह से राबिया मिल जाएगी किसी परिचित की दावत में, सोचा तक नहीं था नेहा ने। लंकाशायर की वे दोनों ‘बोनी-लासी’ अब चहकती आवाज और छलकती आंखों के साथ बातें किए जा रही थीं। सच है भी या नहीं यह, सच को मानने और जानने के लिए बारबार एक दूसरे को छू कर देख और परख रही थीं। बरसों पहले ली और इसी राबिया को उस ‘पौली’ से छुपाकर भगाने में नेहा ने भी अन्य चार मित्रों के साथ भरपूर मदद की थी, वरना बाप और भाई तो मार ही डालते दोनों को। पढ़ने आए थे वे बाथ में यूं इस तरह के गुल खिलाने नहीं। कुछ ऐसा ही तो बारबार घर पर लगातार समझाया भी जाता था उन्हें।

राबिया के पेट में बिना शादी के ही ली वौंग का बच्चा आ गया था और न तो ली का ही शादी करने का कोई इरादा था और ना ही राबिया का ही।

‘बच्चे की मजबूरी में शादी कर लो.. यह भी कोई शादी है? पर बास्टर्ड को गिराया भी तो नहीं जा सकता!’—दोनों का ही कहना था यह। अड़े थे वे कि माना आने वाला बच्चा उनका ही है और उनकी जिम्मेदारी भी है, पर सिर्फ और सिर्फ इसी वजह से शादी करके जिन्दगी खराब तो नहीं कर सकते थे वे।

‘तो फिर…?’- हम सब बेहद परेशान थे तब…

ली के घर वालों का तो पता नहीं, पर रॉबिया के घर वाले ऐसा कतई नहीं मानते थे। उनकी आंखों में तो राबिया की जिन्दगी खराब हो चुकी थी।’शादी से पहले आए इस हरामो बच्चे का दुनिया में न आना ही बेहतर है।’, दहाड़ दहाड़ कर सुनाया गया था यह राबिया को।

पर राबिया थी कि टस से मस ही नहीं हुई। जूं तक नहीं रेंगी उसके कानों पर। चली गई चुपचाप और ढूंढा भी नहीं था फिर मां बाप ने उसे।

पर राबिया ली के साथ भी नहीं रही थी इसके बाद। जो बच्चे को बोझ कह सकता था। गिराने की बात कर सकता था। उसका बोझ क्या और कैसे उठा पाता, किस केमिस्ट्री, किस कमिटमेंट की अपेक्षा रख सकती थी राबिया उससे!

इक्कीसवीं सदी थी तो क्या, संवेदनाएं मरी नहीं थी उसकी। अंदर ही अंदर करवट बदलते बच्चे ने भी तो मां-मां पुकारना शुरु कर दिया था।

दुनिया बहुत बड़ी है और उगते नए पंखों के उड़ान की क्षमता भी। निकल पड़ी थी अकेले ही, तीन महीने का पेट लेकर राबिया। अर्जेंटीना और साउथ अफ्रीका, फिर मायामी होते हुए अब पिछले पांच साल से यहां टैक्सस में ही सैटल है, रौदरम और तेज निगाहों और कडुवे सवालों से कई समन्दर और कई-कई गलियां दूर। नेहा देख रही थी उसके चेहरे पर अकेलेपन की न थकान थी और ना ही कोई मलाल।

‘बच्चे बड़े हो रहे थे और एक जगह सैटल होना बहुत जरूरी था मेरे लिए।’—हंसकर ही बताया था राबिया ने उसे।

कैसे कोई अपने ही घावों पर इतनी बेफिक्री से हंस सकता है, बातें कर सकता है। दर्द नहीं होता क्या कभी इसे, नेहा ने एकबार फिर सहेली की तरफ और उसके तीनों बच्चों की तरफ गौर से देखा।

मां बच्चे सभी स्वस्थ थे और सभी के चेहरे दमकते हुए थे।

प्यारी और खास सहेली हो राबिया, ऐसी बात नहीं थी, फिर भी सहेली तो थी ही। चालीस पार करके भी स्कूल के दिनों की दो सहेलियां एक दूसरे को पहचान लें, उसी ललक के साथ मिलें एक बड़ी बात है, यह भी। खास और प्यारी तो दूर की बातें हो जाती हैं, वैसे भी, इस उम्र तक पहुंचते-पहुंचते बचपन की छोड़ो, जवानी तक की बातें याद नहीं रहतीं किसी को। बदल जाते हैं लोग। बस.. नेहा ही नहीं बदली थी… वैसी ही बोरिंग और सीधी-साधी जिन्दगी थी उसकी। कुछ भी नहीं बदला था जीवन में। वही एक अदद पति, घर बच्चे, बस वही सब। यहीं तक तो सिमटा रहा है उसका संसार। आज भी वहीं की वहीं है वह वैसे ही दबी ढकी और एक सुरक्षित और सुचारु ढांचे में पलती-बढ़ती, जैसे मां थी, या उनसे पहले दादी नानी थी, या उनकी भी दादी नानी कभी रही होंगी। फालतू की कोई चहल पहल नहीं, कोई एक्साइटमेंट नहीं। यहां तक कि कोई हो-हल्ला या अनचाहा क्लटर तक नहीं। उसकी सुचारु गृहस्थी पर खुद उसे ही नहीं, मिलने-जुलने वालों को भी तो कितना नाज रहता है। पर यह राबिया भी तो अब एक समझदार और जिम्मेदार गृहस्थिन-सी ही दिख रही थी। दो बच्चे स्कर्ट पकड़े बगल में चिपके खड़े थे और वह तीसरा दौड़ता आया और पल भर में ही अपनी फुटबाल बड़े हक के साथ उसे थमाकर वापस बाहर दौड़ गया, जैसा कि उस उम्र के सभी बच्चे मां के साथ करते हैं। तो अबतक तीन बच्चों की मां बन गई उसकी यह हरफन मौला… निर्गुनिया फकीर सहेली, राबिया। हां यही नाम याद आता था उसे हमेशा राबिया को देखकर, सिवाय उस दूसरे नाम के जो होठों की स्मिति में हो मासूम शरारतों के साथ दब जाया करता था। हां सुनकर ठहाके लगाकर हंसती थी तो बस राबिया—’बचकर रह इस विच से नेहा, इसके जादू से तो बड़े-बड़े नहीं बच पाते।’ लगता है अब तो इसके भी रंगढंग पूरी तरह से बदल चुके हैं। बांध लिया है इसे भी गृहस्थी ने… बच्चों ने। जमीन पर आ चुकी है यह भी। नेहा ने एकबार फिर कौतुक भरी नजर से देखा सहेली को। पर, ज्यादा बदली तो नहीं लग रही थी कहीं से भी राबिया। हां शरीर थोड़ा भर गया था जिससे रंगत ही नहीं रूप भी और ज्यादा निखर आया था। प्यारा सा बेटा चार पांच साल का बगल में, गोरा चिट्टा चंदा-सा चमचम करता और तस्वीर को पूरा करती, गोदी में गोलमटोल बेटी, थोड़ी सांवली जरूर थी, पर थी बहुत ही प्यारी, मां की तरह ही… नेहा ने गौर किया कि बड़ा बेटा जो अभी-अभी फुटबाल देकर बाहर को भागा था, उसका रंगरूप तो बिल्कुल ही ली पर गया था। उसकी तरफ देखकर हंसा तक तो था वह ली की तरह ही, वैसे ही चीनियों-सी अपनी छोटी-छोटी आंखें मिचमिचाते हुए। नेहा ने तुरंत कहा भी था, ‘यह तो बिल्कुल बाप पर गया है।‘ ‘हां, सभी बच्चे बाप पर ही गए हैं, मुझ पर तो कोई भी नहीं गया।’, कहकर पल भर को तो बिल्कुल ही चुप हो गई थी राबिया। जबाव और उसको चुप्पी पर पल भर को चौंकी तो नेहा भी, परंतु तुरंत ही बात दिमाग से आई-गई हो गई थी। बच्चे हैं तो ली भी यहीं कहीं होगा। अब नेहा की आंखें सहेली के पति को ढूंढ रही थीं और मन वक्त के डैनों पर सवार पीछे बहुत पीछे, रौदरम तक जा पहुंचा था… उसी घर, उसी मोहल्ले में जहां वे आमने सामने के घरों में वे रहा करती थीं… तब जब वे खुद इन बच्चों से जरा ही बड़ी हुआ करती थीं। वह सहमी सिकुड़ी अपने में ही खोई-खोई नेहा थी और हर बात में अपनी आवाज सबसे ऊंची रखने वाली, उसके ठीक विपरीत राबिया थी… रूप, गुण सबमें ही, उससे पूरी ही उल्टी।

लम्बा साथ रहा था दोनों का फिर भी। बचपन से जवानी की देहलीज दोनों ने संग-संग ही पार की थी, वैसे ही जैसे रात और चांदनी का रहता है.. अक्सर ही एक दूसरे के गुण-अवगुण को और निखार देती थीं दोनों। ऐसे ही सुबह-शाम कंधे पर बस्ता लटकाए दोनों संग-संग स्कूल आती-जाती कब बड़ी हो गई पता ही नहीं चला, न उन्हें और ना ही घरवालों को ही। शाम को वैसे ही कंधे पर बस्ता लटकाए साथ-साथ ही वापस लौटती थीं दोनों। रास्ते भर ज्यादातर राबिया ही बोलती रहती थी। सवाल भी वहीं ज्यादा पूछती थी। नेहा का काम तो छोटी-छोटी हां, हूं और ना, नुकुर से हो चल जाता था, पर राबिया का नहीं। उसे हर बात की तह में जाए बगैर चैन नहीं पड़ता था।

सड़क के दूसरी तरफ ही रहती थी राबिया। स्कूल में बात हो या न हो, मिलें या न मिलें, पर स्कूल से आते-जाते दोनों एक दूसरे को दिन भर का लेखा-जोखा जरूर ही सुनाती। कभी-कभार तो घर भी आ जाती थी राबिया, खास करके इतवार के दिन। और फिर जब मां के आगे बेमतलब ही दोनों सहेलियां खी-खी करती, तो खूब डांट भी खाती नेहा। राबिया को भी तो…’ पर मैं तो ऐसा नहीं मानती’ कहकर, बड़ों की हर बात काटने की जबर्दस्त आदत थी।

मां की और उसकी कभी नहीं बनी। देखते ही बुदबुदाने लग जाती थीं। देखना, अभी से पर नहीं काटे तो एकदिन सबका मुंह काला करके रहेगी यह। उसका नए-नए रंग के आई शैडो से प्रयोग करना, बालों को ऊल-जुलूल रंगों में रंगना, बड़े-बड़े बूट और छोटी-छोटी स्कर्ट पहनना, फूटी आंखों न सुहाता था मां को। मां भी ती उसी-सी जिद्दी थीं। उन्होंने भी ती कसम खा ली थी कि राबिया को सुधारना ही है। जीते जी आंखों के आगे यह सब नहीं चलेगा। एकबार नहीं सौ बार सुनाया था राबिया को उन्होंने। आखिर उनकी भी तो बेटी है, उसपर भी तो बुरा असर पड़ता है। कान्वेंट की पढ़ी होकर भी बिल्कुल ही परंपरावादी थीं मां। पुराने ख्याल की। नया और अनजाना कुछ भी देखते ही उन्हें अपच होने लगती थी। बेटियों के बारे में तो बहुत ही चौकन्नी और सतर्क।

पापा भी तो आजतक नहीं थके, मां के किस्से यार दोस्तों और रिश्तेदारों को सुना सुनाकर। कई-कई बार, खूब मजे लेकर सुना चुके हैं सब को ही मां की वो बचकानी और बेतुकी बातें…खास करके जनवरी के महीने में नेहा के जन्म के बाद वह पंखे वाली फरमाइश की बात..। यार-दोस्त जो भी सुनता, कान तक खिसियांई मुस्कान खिंच जाती….मुस्कान जिसमें आनंद से ज्यादा चिंता झलकती। पांच की हों या पच्चीस की, आखिर बेटियां तो सबके घर में ही थीं और यहां इंगलैंड में बेटियां सही सलामत बड़ी हो जाएं, ठीक-ठाक शादी कर अपने-अपने घर पहुंच जाएं, यह किसी भी मां-बाप के लिए कोई हंसी खेल की बात नहीं। अच्छे और संस्कारी लड़कों का तो मानो अकाल ही है इस मांस-मदिरा की धरती पर। क्या-क्या पापड़ नहीं बेले खुद उन्होंने भी नेहा की शादी के लिए। नेहा सुन्दर थी फिर भी बात ही नहीं बनती थी कहीं। ऐसा नहीं था कि स्वभाव क्लिक नहीं होता था, जो भी आता, पहले साल दो साल डेट चाहिए थी। कहता फिर ही बात आगे बढ़ सकेगी। साल दो साल…मां का मुंह खुला का खुला रह जाता। कैसे बेशर्म होते जा रहे हैं आजकल के ये बच्चे…बड़ों के आगे क्या और कैसे बात करनी चाहिए, कोई अदब लिहाज नहीं अब इनमें। इतना ट्रायल तो कार वाले भी नहीं देते। नेहा की मां और बाबा कभी उनकी शर्तों के लिए तैयार ही नहीं हो पाते थे। इंगलैंड में हों या अमेरिका में बामन-बनियों की बेटियां यूं शादी के पहले पराए माँ के साथ नहीं घूमतीं, फैसला पत्थर सा जा गिरता भावी दमादों के आगे।

नेहा को लगता, पंखे का किस्सा ही सही था। ले ही आते तो अच्छा ही था। कभी-कभी तो अब पापा को भी यही लगने लगा था। नेहा के होते ही मां ने पापा से फरमाइश की थी कि हिन्दुस्तान से एक छत का पंखा मंगवा दो। सुनते ही पापा सकपकाए जरूर थे पर अब एक-एक शब्द का अर्थ और दर्द दोनों साफ-साफ समझ पा रहे थे। उस समय तो आश्चर्य में डूबे आनंद अवस्थी ने पत्नी से बस इतना ही पूछा था—भरी सर्दी में जबकि बर्फ चारो तरफ बिखरी पड़ी है, नवजाता तुम पंखे का क्या करोगी?

पूछते ही, बड़े सहज ढंग से मां ने जबाव दिया था—मान लो हमारी हर कोशिश के बाद भी, कल को हमारी यह बेटी यहां के रंगढंग में रंग ही जाए, और किसी काले-पीले से शादी की जिद कर बैठे तो कम से कम लटक तो सकूंगी बिना जिल्लत उठाए। मलेच्छों के देश में भगवान ने जब भेज दिया है तो यह दंड तो भुगतना ही पड़ेगा, ना। और तब इतने गंभीर मजाक पर भी पापा जोर से हंसे बिना नहीं रह सके थे। रुक्मणी तुम भी गजब करती हो, बस इतना ही कह पाए थे भीगी आंखों से पत्नी की तरफ देखते वह। मजाक दर किनारे, उसी दिन से नेहा के लिए एक अनकहा नियम बन गया था घर में, जिसे नेहा बचपन से ही भलीभांति जानती और समझती थी। उसकी शादी सारस्वत ब्राह्मण से ही होगी और मां बाप के पसंद के लड़के से ही होगी। अन्य सहेलियों की तरह अपना जीवन साथी चुनने का अधिकार नहीं था उसे। यहां इंगलैंड में पल बढ़कर भी नहीं। कान्यकुब्ज ब्राह्मण दयानंद अवस्थी की पोती नेहा अवस्थी को किसी ऊंच नीच की स्वतंत्रता नहीं थी। लोअर फिफ्थ की क्लास में बांटे गए कन्डोम उसे भी मिले थे। वहां तो उसने चुपचाप ले लिए थे। पर घर आते ही मां देखे इसके पहले ही टॉयलेट में बहा दिए थे उसने। उसके साथ इस तरह की किसी गलती की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। रोज रात को मां की निर्गुनिया की कहानी सुनकर कोई भी ऊब जाता पर नेहा नियम से सुनती थी। ध्यान से सुनती थी। यही नहीं, सुनने के बाद, मां द्वारा पूछे हर सवाल का जबाव भी उतने ही शान्त भाव से देती थी। इस सबके बाद ही अपने कमरे में होमवर्क करने को जा पाती थी वह। फिर भी, मां और बाप अक्सर ही उसके कमरे की तलाशी लेते। कौपी-किताबों को उलटते-पलटते, चिठ्ठी-पत्रियां पढ़ते रहते। पर नेहा को न तो अन्य बच्चों की तरह गुस्सा आता और ना ही कोई ऐतराज ही होता। रात को मां ही उसके कमरे का परदा खींचने आतीं और सामने देखते ही बड़बड़ाने भी लग जातीं। चुड़ैल है पूरी चुड़ैल…भगवान ऐसी की तो परछाई से भी बचाए…जाने कहां-कहां मुंह काला करके आती है। मां बात राबिया की करती थीं और शर्म से गर्दन नेहा की झुक जाती। उसे पता था राबिया की लड़कियों से कम और लड़कों से दोस्ती ज्यादा रहती थी और कोई न कोई उसे अपने साथ घुमाने हर शाम को जरूर ही ले भी जाता था। दोनों व्यस्त डॉक्टर मां-बाप को तो पल भर की भी फुरसत नहीं थी कि बेटी से दो बात तक कर सकें, घुमाने ले जाना तो बहुत दूर की बात थी। नेहा जानती थी इतनी बुरी नहीं राबिया, जितना कि मां समझती हैं, बस बहुत अकेली थी और स्वभाव से विद्रोही व चंचल थी राबिया। घर का अकेलापन उसे खाने को दौड़ता था, इसीलिए बस बाहर-ही-बाहर घूमती रहती थी राबिया। पर मां को कौन समझाए…बड़े तो खुद ही समझदार होते हैं। मां बाप को बहुत प्यार करती थी नेहा। उनकी बहुत इज्जत थी नेहा की आंख में। उनसे बहुत डरती भी थी नेहा…वरना एक चौदह साल की लड़की के लिए स्कूल में हुई हर बात को, हर रात हो मां के आगे पूरा-का-पूरा दोहराना आसान तो नहीं। घामड़ कहती थी राबिया उसे। कभी थोड़ा बहुत छुपा भी ले जाया कर। सब कुछ उगलने की क्या जरूरत है, तुझे घामड़। अक्सर ही कहा था उसने। ऐसे तो बस शेल्व पर ही रखी रह जाएगी तू, या फिर किसी बेजोड़ बुड्ढे खूसट के संग बांध दी जाएगी। कई बार कहा था राबिया ने यह उससे। एक बार तो मां ने भी सुन ली थीं उसकी बातें और कमरे के अन्दर ले जाकर घंटों उसे समझाया भी था। तुझे हमपर भरोसा नहीं है क्या…जो उस चुड़ैल की बातों पर ध्यान देती है। नीची नजर किए नेहा ने सबकुछ सुन लिया था। पूछना तो दूर, उसे तो यह सोचकर ही शर्म आ रही थी कि ऐसा उसने क्या कर दिया, कहां गलती हुई है उससे, जिसकी वजह से मां को लगा कि उसे उन पर विश्वास नहीं है। खुद से ज्यादा विश्वास है नेहा को अपने मां-बाप पर। उनकी पूरी सगुनिया बेटी बनने की कोशिश की है उसने सदा। कोई घामड़ कहे, या कुछ भी…सीधी-सादी नेहा को मां से कुछ भी छिपाना अच्छा नहीं लगता, विशेषकर तब, जब मां अपनी तरफ से पहल करके खुद जानना चाहती हों। उसे तो यह भी पूछने का अधिकार नहीं था कि क्या वह सगुनिया, मां जिसकी इतनी तारीफ करती हैं, उसकी अपनी कोई इच्छा थी अपने भविष्य को लेकर। पढ़ लिखकर पायलट या कुछ और, बनना चाहती थी क्या वह भी कभी। पति और घर वालों को उसकी मदद करनी ही होगी। पर, ड्यूटी पर आकाश में उड़ती सगुनिया घर का काम करने, पति और बच्चों को संभालने कैसे आ सकती है यह भी जानती थी नेहा। पंख आकाश और जमीन दिखते तो साथ हैं पर क्या उनका कोई मेल और सामंजस्य है भी। यही एक सवाल जरूर था जो उसके किशोर-मन में अक्सर उठता, परंतु जैसे ही उठता दबा देती थी नेहा। उसे पता था कि घर परिवार के लिए कोई भी त्याग मुश्किल नहीं सगुनिया के लिए। इच्छाओं को मारना तो बहुत ही आसान बात थी उसके लिए…अच्छी लड़की थी न सगुनिया और अच्छी लड़कियों की तो कोई इच्छा ही नहीं होती। आज भी यूं अपने ही मन को कुरेदना अच्छा नहीं लग रहा था नेहा को। उठकर बच्चों की अलमारी ठीक करने लगी वह, शायद कुछ ध्यान बंटे। पर ना तो राबिया उसकी सोच से जा पा रही थी और ना ही मां की वह सैकड़ों बार सुनी कहानी। कहानी कुछ यों थी—एक थी निर्गुनिया और एक थी सगुनिया। दोनों बहनें थीं। निर्गुनिया दिन रात खी-खी करती। दिन रात लड़कों के संग खेलती-कूदती, इतना मारी मारी फिरती कि लड़का ही बन गई थी वह। लड़कियों जैसी कोई बात ही नहीं रह गई थी उसमें। उसके सारे गुण अपने आप ही झर गए थे। नतीजा यह हुआ कि कभी खुद को और घर को संभालना सीखा ही नहीं उसने, पति-बच्चों को कैसे संभाल पाती वह। न तेल लगाती, न बाल संवारती, ना ही सलीके से कपड़े ही पहनती थी निर्गुनिया। परकटी मुर्गी-सी घूमती रहती, वही सिर पर चार बाल लिए। यूं ही बिना किसी शऊर के बड़ी हो गई निर्गुनिया। न कोई ब्याहने आया, न घर बार ही बसा कभी उसका। मां-बाप, भाई-बहन वर ढूंढ-ढूंढ के परेशान हो गए। जैसे तैसे ब्याह हुआ भी तो दो ही दिन में लक्षण देखकर पति छोड़ गया और ऐसे ही बिना बाल बच्चों के, बिना पति के उम्र भर अकेले रोती ही रह गई निर्गुनिया। तब मुस्काती सगुनिया फिर से सामने आकर खड़ी हो जाती मां के साथ… मां की आवाज में जीती-जागती। शीशे में अपनी परछाई देखती नेहा तो सगुनिया ही दिखती दिन-रात उसे। सगुनिया के लम्बे काले बाल और दमदम करता रूप सबको खींच लेता। घर-बार, पति, बाल बच्चे सबका खूब ख्याल रखती सगुनिया। सारे काम सलीके से करती। पति-परिवार खूब खुश रहते उससे। पति आगे पीछे घूमता। भरे पूरे परिवार में देवी सी पुजती थी सगुनिया। मां नहीं भी सुनातीं, तब भी जानती थी ये सब बातें नेहा। अपनी मां और दादी को बहुत पास से जाना और समझा था नेहा ने। पर राबिया को तो यह सब जानने का कभी मौका ही नहीं मिला था। उसकी मां और उनका जीवन व्यस्त था, उसके पिता की ही तरह, जिसमें पारिवारिक जिम्मेदारियों और समस्याओं के लिए कोई जगह नहीं थी। इसीलिए तो राबिया की समझ से परे थीं मां की बातें। इसके पहले कि मां की बारबार सुनी-सुनाई वह कहानी और आगे बढ़े, उबासी लेती राबिया उठ खड़ी होती श्री और नेहा की बाहें खींचती पूछने ला जाती थी—चल बाहर घूमने चल रही है तू, या यूं यहीं बैठे-बैठे बुढ़ी होकर मरने का इरादा है तेरा। और तब नेहा आर्त आंखों से मां की तरफ देखने लग जाती। मां का अगला सवाल होता—कौन कौन और जा रहा है तुम्हारे साथ ? और जैसे ही राबिया विलियम, ली और मोहन का नाम लेती, मां चट कामों की एक लम्बी फहरिस्त सुनाकर नेहा को रोक लेतीं। बुदबुदाने लग जातीं—कैसी डाइन-सी लड़की बनाई है भगवान ने, चौबीसों घंटे लड़कों के साथ ही डांय-डांय घूमती रहती है। न कोई रोकने वाला, न टोकने वाला। मां-बाप भी भगवान ने ऐसे दिए जो अपनी ही दुनिया में मगन। अपने मरीजों, रोज रोज के शौक-मौज और दावतों से ही फुरसत नहीं। और तब मां के साथ सब्जी काटते, रोटी बिलवाते नेहा को निर्गुनिया की कहानी दुबारा सुननी पड़ती—वह भी पूरी की पूरी, अक्षर-ब-अक्षर।

पर शादी तो नेहा की भी बड़ी मुश्किल से ही हुई थी। बीसियों लड़के आए और गए। सबकी हां करने के पहले डेट चाहिए थी। साथ घूमने जाना था। जानना था कि कैमिस्ट्री एक है भी या नहीं। स्वभाव में भी और बिस्तर में भी। नेहा ने भी पैर गाड़ दिए, साफ-साफ बता देती—बाकी सब तो ठीक है पर बिस्तर की कैमिस्ट्री किस्मत पर ही छोड़नी पड़ेगी। सुनते ही तुरंत ही भाग खड़े होते। कैसी सती सावित्री-सी लड़की है आज के जमाने में। सीधी मांग और चुटिया बनाने वाली। ऐसी बैकवर्ड सोच की लड़की भला उनके किस काम की। न लिपिस्टिक लगाती, न छोटे और थोड़े कपड़े ही पहन सकती है। गले की जिप भी तो कान तक खींच कर रखती है। पता नहीं लड़कियों वाला कोई चार्म है भी या नहीं इसके शरीर में। बातें तक तो आखें नीची करके करती है। अभी जान छूट गई, अच्छा है, वरना महीने दी महीने में ही कोर्ट कचहरी के चक्कर काटने पड़ जाते। 

मां किस्मत समझकर चुप बैठ जातीं। देखना ऐसी सगुणिया को तो कोई राजकुमार की ब्याहने आएगा। बारबार कहतीं। पांच वर्ष तक कुछ न हुआ तो तर्ज बदली—हमारी बेटी तो गऊ सी सीधी निकली। किसी लड़के की तरफ आंख उठाकर ही नहीं देखती। अब वे खुद सारस्वत ब्राह्मण तो दूर किसी भी जात के एक ढंग के लड़के तक का इन्तजाम नहीं कर पा रहे थे अपनी सगुनिया लाडली के लिए। जाने कितनों के साथ अम्मा-बाबा उसकी पत्री और कैमिस्ट्री मिलवाते रहे, पर राजकुमार नहीं आया तो नहीं ही आया। तीस के पेटे में पड़ते ही मां खुद ही कहने लगी थीं लड़‌कों से—मन हो तो आप बाहर घुमा लाओ, हमें कोई ऐतराज नहीं। नेहा को खुद जरूर यह सब सुनकर अटपटा लगता, अपमानित होती वह पर मां बाप की खातिर सह जाती। जब मां बाप ढीले हुए रवैये में, तब जाकर रौशन मिल पाया था। वह भी रौशन अवस्थी या शुक्ला नहीं, रौशन विश्वकर्मा। दस साल बड़ा था तो क्या, उंचे ओहदे पर तो था। धन-दौलत में भी टक्कर के घर-बार से था। और क्या चाहिए सगुनिया को राजपाट के लिए। मां ने तुरंत ही अपना फैसला सुना दिया—आदमी की जात तो काम और गुण से ही होती है। रौशन वाकई में सीधा था। नेहा की शर्त भी मान गया था चुपचाप। नेहा भी मान गई थी, उसकी हर बात। पर राबिया नहीं मानी थी। ली मोहन और विलियम तीनों से केमिस्ट्री मिलाते-मिलाते आज वह तीन बच्चों की मां बन चुकी है, चालीस पार कर चुकी है। पर तीनों में से एक से भी उसने शादी नहीं की है। बस शरीर से पैदा हुए तीनों बच्चे उसके हैं, उसके साथ हैं। ली, विलियम और मोहन कहां हैं, यह तक नहीं जानती राबिया तो। तीनों बच्चों के बाप के नाम की जगह उसने खुद अपने हाथ से ब्रैकेट में ईश्वरचन्द परमानंद क्यों लिख रखा है नेहा को समझ में आने लगा था। नेहा यह भी समझ गई थी कि न तो राबिया ही दुखी थी ना बच्चे ही। चारों बहुत मस्त और खुश लगे थे उसे। नेहा ने उत्सुकता होते हुए भी कुछ और ज्यादा नहीं पूछा, क्योंकि राबिया ने बातचीत की शुरुआत में ही आगाह कर दिया था, देख तू कोई सवाल नहीं करेगी। कुछ नहीं पूछेगी मुझसे। यह तीनों मेरे बच्चे हैं…बस मेरे बच्चे। यूं समझ ले कि इनका बाप वह ऊपर वाला है। ये उसी की रेहमत की मिट्टी में उगे फूल हैं और मेरे दामन को महका रहे हैं। मेरे घर को गुलजार कर रहे हैं। दुनिया के आगे भी बाप का नाम ईश्वरचन्द परमानंद है, ताकि इनके मन में फालतू के सवाल न उठें। बड़े होंगे, जानने लायक होंगे, तब मैं खुद ही सब बता दूंगी…यह भी कि मैं शादी तभी करूंगी जब कोई मेरे लायक होगा…कैमिस्ट्री बिल्कुल ही सही होगी… तन की भी और मन की भी। और तेरे लिए भी बस इतना ही जानना काफी है। नेहा ने देखा राबिया को अभी भी अपनी हर बात पर पूरा विश्वास था।

कुछ पूछा भी नहीं था नेहा ने फिर उससे। पूछने की जरूरत ही नहीं थी, अब। तीनों की ही शक्लों से ली, विलियम और मोहन की शक्ल साफ साफ झांकती दिखती थी नेहा को। नेहा को अपनी बचकानी सोच पर फिर हंसी आ गई। ली, विलियम और मोहन उसके पीछे छूटे मित्र थे, खिलौने नहीं। उन्हें साथ लेकर नहीं घूमी होगी नेहा।

‘रूबी परमानंद को जानती हो क्या नेहा ? पहले मिल चुकी हो क्या इनसे…क्यों नहीं, हमारे ग्रुप की ही क्या देश की भी बड़ी कलाकार हैं, रूबी परमानंद।’ होस्ट सबीना महाराज ने दोनों को यूं बातों में लगातार गुंथे देखकर पूछा। नेहा ने बस ‘हां’ में गरदन हिला दी। यह तक नहीं बताया कि आज से नहीं, उस वक्त से जानती है वह तो उसे, जब वह रूबी परमांनन्द नहीं, राबिया हक हुआ करती थी।

नाम बदलने का, पुरानी पहचान खोने का, राबिया की आंख में कोई दुख या पश्चाताप नहीं था। उसकी हंसी आज भी वैसी ही बच्चों सी स्वच्छंद और निर्भीक ही थी।

‘पंछियों में और हममें ज्यादा फरक नहीं होता नेहा। यह सब तो मानव सभ्यता के पाले और अपनाए चोंचले हैं बस। जीने नहीं देते ये हमें। पिंजरे सोने के हों या प्यार के…पिंजरे बस पिंजरे ही होते हैं और हमारी आत्मा की भलाई इसी में है कि हम इन पिंजरों को पहचानें, उनसे बचें।’

राबिया ने बड़े ही रहस्यमय और दार्शनिक अन्दाज में सहेली को जाने क्या-क्या समझाने की कोशिश की।

और तब बातों के बीच-बीच में उसका हाथ दबाते, पसीने से भरे हाथ को देखकर एकबार फिर जोर से हंस पड़ी थी राबिया। तो, मन में चलते इस द्वंद्व को पढ़ने का पुराना गुर आज भी भूली नहीं थी वह। जाने किस सम्मोहन के रहते अधमुंदी आंखों से बुदबुदाई थी नेहा—’यू विच’। पहले भी कई बार नेहा ने उसे ‘विच’ कहा था…तब जब वह उसकी रहस्य भरी बातें समझ नहीं पाती थी या फिर उसकी मोहक मुस्कान और आंखों की चमक उसे सम्मोहित करने लगती थी और सब कुछ उगल देने पर मजबूर कर देती थी।

सिवाय राबिया के कोई नहीं जानता था कि एक बार… बस एक बार क्लास के सीधे-सादे जीन ने उसे भी होटों पर चुमा था और नेहा ने चूमने भी दिया था। निर्गुनिया और सगुनिया कितनी भी फरक हों, थीं तो बहनें ही। अपनी ही आवाज से चौंककर नेहा ने चारों तरफ देखा, कोई सुन तो नहीं रहा और एक दूसरे की तरफ देखते ही, सब कुछ भूल, दोनों ही सहेलियां और जोर से खिल-खिलाकर हंस पड़ी थीं। घामड़ कहीं की…इस बार राबिया ने कहां था…वैसे ही अधमुंदी आखों के साथ।

पर घर आते ही राबिया उसे फिर एक पहेली की तरह ही क्यों लग रही थी। क्यों उसका भी मां की तरह मन कर रहा था कि उसके भेजे में थोड़ी अकल और दुनियादारी डाल दें। दुनिया की आंखों में सुरक्षित और संस्कारी बना दे। मां सही ही कहती है, जरूर इसके पंजे उलटे ही पड़ते होंगे…तभी तो कोई खौफ नहीं इसे किसी का। एकबार फिर वही ‘विच’ शब्द उसके गले में आकर अटक गया। जाने किस मिट्टी की बनी है…यह राबिया भी। तीन-तीन बच्चे हैं…तीन तरह के…पति एक भी नहीं…छीः आगे सोचना भी दुख दे रहा था अब नेहा को। फिर क्यों सोचे जा रही है नेहा उसी के बारे में। राबिया के हंसते चेहरे को, उसके साथ बिताए बेबाक खुशी के पलों को भूलना आसान भी तो नहीं। जी भरकर जीती है राबिया। नेहा भूल नहीं पा रही…कोई लाग लगाव कोई बनावटीपन नहीं रहता कभी उसके साथ। बादल और झरनों सी मुक्त है राबिया। पर… इसका अर्थ यह तो नहीं कि आदमी जानवर के स्तर तक गिर जाए। कितना सहा होगा इसने तन और मन पर। जिस मन को बचाने के लिए यह सब किया उसे कहां तक लवेड़ डाला है। सोचते-सोचते रोम-रोम कांपने लगा। भौचक्की सी देखती ही तो रह गई थी नेहा हमेशा की तरह ही कल भी उसे। क्या यह भटकन…यह चोट ज्यादा ठीक है, या उसकी तरह एक सीधे सुलझे और पहचाने व बताए मार्ग पर ही चलते जाना, ज्यादा सही है एक आम इन्सान के लिए। माना उसमें जोश और आनंद है… गलतियों का रोमांच है…फिर गलतियां भी तो खुद उसकी अपनी और अपनी पसंद की हो रही होंगी…खुद की बनाई और मन माफिक…पर दूसरे रास्ते में उपलब्धियों और ठहराव भी तो है, जड़ें जमने का, फलने-फूलने का ही नहीं, बसने और छांव देने का सुख और संतोष है। मान और इज्जत है। तो क्या राबिया के पास इज्जत नहीं ? देखने में तो सभी बहुत इज्जत से ही बात कर रहे थे रूबी परमानंद से। क्या पता रूबी परमानंद की तरह उनका व्यवहार भी बनावटी, किसी मजबूरी के तहत ही हो? पर ऐसा लगता तो नहीं था… नेहा का मन कुछ भी मानने, किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने से बारबार इनकार करता रहा। फिर क्यों उसकी आंखें दुख से बारबार छलछला आ रही थीं ?.. किसके लिए और आखिर क्यों… क्या चाहती है आखिर अब नेहा ?… खुद से ही अनजान हो चली थी नेहा और उसकी रहस्यमय उदासी गहराती ही जा रही थी।

नेहा को पहली बार याद आया कि उसने तो जबसे होश संभाला है, अपने बारे में, अपने अधिकारों के बारे में, अपनी स्वतंत्रता, अपनी खुशी के बारे में कभी सोचा ही नहीं। ‘मेरे माता पिता ‘मेरे पति मेरे परिवार के लोग…यह शब्द ‘मेरे की तो घेरे रखा है आजीवन उसे इसकी जकड़, इसके भ्रम से ही नहीं छूट पाई है वह तो कभी। फिर आज अचानक यह तड़प, यह झटपटाहट क्यों… उम्रभर ठीक से रची-रमी है वह इसमें, सुख जान और मानकर भोगा और जिया है उसने अपना जीवन!

यथार्थ अपनी पूरी भयावहता के साथ सामने पसरा पड़ा था, उसे और उसको मान्यताओं की पूरी तरह से निगलने और तोड़ने को तैयार। नेहा को लगा कि यदि और प्रयास किया तो इससे बचने और बचाने के प्रयास में वह खुद उसे मधुमक्खी की तरह ही दम तोड़ देगी, जिसे अभी-अभी चौके की चौखट से झाड़-पोंछकर नेहा ने बाहर फेंका है। पर, उसका भी तो नेहा की तरह ही, वहां आने का, दखल देने का कोई इरादा नहीं था। बस… हवा के झोके के साथ बहती-बहती यूं ही आ पहुंची थी वह भी तो वहां पर, जैसे कि नेहा आन पहुंची थी उस दावत में.. या. इस जीवन प्रणाली में।…

नेहा को अब खुद याद नहीं कि कल वह सामने खड़ी राबिया को समझा रही थी या खुद अपने आप को। बन्द आंखें और भरे गले से बोलती नेहा राबिया को एक छोटी सी बच्ची सी हो तो लगी थी, जिसकी गुड़िया अभी-अभी छीनकर किसी और को दे दी गई हो। चलते वक्त गले लगाकर कहा भी तो था उसने—खुश रहना सीख, नेहा। यह त्याग और परिवार की बातें अच्छी हैं पर खुद का, इच्छा और योग्यता का बलिदान करके नहीं। आई होप कि इससे पहले कि बहुत देर हो, तुम अपना ध्यान रखना भी सीख पाओगी।

जबसे दावत से लौटी है कैसी गंध भर गई है तन और मन में कि लगातार साफ चीजों को भी साफ किए जा रही है नेहा। माना कि उसे क्लटर से नफरत है, माना बचपन से जानती है वह कि आस पास क्लटर हो तो लक्ष्मीजी रूठ जाती हैं। निर्गुणिया के घर की तरह दरवाजे से ही वापस मुड़ जाती हैं। फिर आज इन सब बातों पर उसे विश्वास क्यों नहीं हो पा रहा। यह कैसा क्लटर है ऊल-जलूल सोच का जो खुद-बखुद ही उसे घेरे चला जा रहा है। नेहा पति, बच्चे सबसे बेखबर कल से लगातार खुद से ही बातें किए जा रही है। किचन सिंक बर्तनों से भर गया है और घर बच्चों की किताब और खिलौनों से। वे ही सब पुरानी बातें…मां की बातें…बचपन की बातें और सबसे बढ़‌कर राबिया की बातें दोहरा रही है नेहा। फुरसत ही नहीं कि कुछ और देखे या करे।…राबिया को भूल नहीं पा रही है नेहा। दुनिया जो भी कहे राबिया बहुत खुश है… इतनी खुश जितनी वह कभी नहीं रह पाई…हजार कोशिशों के बाद भी नहीं … सगुनिया बनकर भी नहीं।

वाकई में खुश थी राबिया…कोई हैंगअप, कोई मलाल या पछतावा नहीं था उसकी आंखों में… आत्मा तक पारदर्शी और साफ झलक रही थी आंखों से। कोई इतना खुश भला कैसे रह सकता हैं? रह सकता है अगर जो चाहे, बस वही जोड़े। ‘बाकी के क्लटर को हटाती रहो आसपास से।’ बताया भी था राबिया ने उसे। राबिया ने तो यह तक कहा था कि ‘सोचो नेहा, अगर तुम खुद पायलेट बन पाती, तो क्या ज्यादा खुश नहीं रहती ?’

पायलेट से शादी करने और खुद पायलेट होने में बहुत फर्क होता है जान चुकी  थी नेहा।

नेहा के लिए तो बहुत देर हो चुकी थी, पर अकी और चिट्टी दोनों को ही बचाना है, उसे।…अकी और चिट्टी यानी कि उसकी दो गोलमटोल प्यारी प्यारी पांच और तीन साल की बेटियां—जिन्हें फुटबाल खेलमा पसंद है गुड़ियों की जगह। शोर मचाना, बाहर उछलना कूदना पसंद है बजाय मां की बगल में बैठकर हाथ बंटाने के।

होठों पर आई आंसू भीगी मुस्कान को पोंछते हुए नेहा ने सोचा और तुरंत ही सोच पर रोक भी लगा दी, क्योंकि वक्त सोचने का नहीं, शायद कुछ कर गुजरने का था पर करने को भी तो कुछ नहीं बचा था नेहा के पास। कपड़े धुल चुके थे, खाना बन चुका था और घर की सफाई भी हो चुकी थी। सारा क्लटर हटा दिया था उसने आसपास से। सबकुछ दुरुस्त और ठीक था जीवन में… इतना ठीक कि देखने वाले ईर्ष्या से भर उठें। एक सफल और सुन्दर पति, दो प्यारी प्यारी, फुदकती बेटियां।

‘पर क्या वाकई में खुश है तू नेहा?’

चुप क्यों नहीं होती यह राबिया…राबिया का सवाल बारबार जहन में उठ रहा था और परेशान कर रहा था उसे। तो क्या बिखर जाने दे अपने इस नीड़ को, तिनका-तिनका संजोकर जिन्दगी भर सींचा और संवारा है जिसे! नेहा वाकई में परेशान थी। और न सही, एक निश्चय तो ले ही लिया था उसने कि पांच साल की बेटी अंकिता और तीन साल की सुचेता को अब निर्गुनिया और सगुनिया की कहानी कभी नहीं सुनाएगी वह। इतना अधिकार तो रहना ही चाहिए कि व्यक्ति खुद ही निर्णय ले कि जीवन सगुनिया बनकर गुजारना है या फिर निर्गुनिया L..

नेहा जान गई थी कि अक्सर संस्कार और रिवाजों के नाम पर घिसे-पिटे झूठ पर ही सच का मुलम्मा चढ़ाकर पेश कर दिया जाता है, हथियार बना लिया जाता है इन्हें।…नाजायज दखल या बेवजह ही सपनों को घायल करने के लिए या फिर महत्वाकांक्षा या जिन्दगी हराम करने के लिए। फिर कई झूठ ऐसे भी तो होते है जिन्हें झूठ मानने को ही मन तैयार नहीं होता, सच मान अंतस् में छुपा लेता है…अराध्य और साध्य बना लेता है जीवन का…क्योंकि अक्सर उन्हें समझाने-पढ़ाने वाले वही होते हैं जो खुद हमारे लिए किसी अराध्य या साध्य से कम नहीं। पहली बात तो विवशता भरी है, पर दूसरी तो जान बूझकर, खुद ही खाई में कूदने जैसी हैं…दोनों ही परिस्थितियां खतरनाक हैं…विशेषतः तब, जब मनुष्य के रूप में एक बार ही पैदा होते हैं हम।…नेहा के आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। सब कुछ होने के बाद भी बहुत छला और ठगा महसूस कर रही थी नेहा।

…. पति के नीचे आने से पहले नेहा सामान्य हो जाना चाहती थी। एकबार फिर से जाकर नहाएगी। मल-मल कर सर धोएगी, तभी यह मैल निकल पाएगा। नई गढ़‌वाल की या सिल्क शिफीन की साड़ी पहनेगी आज। इतनी खुश होगी कि आंसू का कतरा न रहे आंखों में। दर्पण भी देखकर मुस्कुरा उठे…अभी यह सब सोच ही रही थी नेहा कि दरवाजे की घंटी बजी-देखा तो सामने राबिया खड़ी थी…वैसे ही हंसती-मुस्कुराती। हां, एक बात और, आज बेटा फुटबॉल नहीं गुड़िया लेकर आया था…. इसके पहले कि वह कुछ और पूछे राबिया खुद ही बतलाने लगी थी कि कैसे वक्त वेवक्त सबेरे-सबेरे ही वह उससे मिलने आ गई है, ‘होप यू डोन्ट माइंड नेहा’—यह भी फिर जोड़ा था तुरंत ही, उसने।’ बेटियों को यहीं, बगल के ग्राउंड में फुटबाल कोच के पास छोड़कर आई हूं। सोचा घंटे-दो घंटे साथ गुजार लेंगे। कल पार्टी में तो ठीक से बात तक नहीं हो पाई थी।’…

बेटी फुटवाल ग्राउंड में और बेटा यहां गुड़िया लेकर…कितना लड़ेगी तू…कहां-कहां उथल-पुथल करेगी।

‘कौन आया है नेहा, किससे बातें कर रही हो ?’ पति की ऊपर, औफिस से आवाज आई, ‘कोई नहीं मेरी सहेली रूबी परमानंद मुझसे मिलने आई है। पड़ोस में नई-नई आई हैं, आप नहीं मिले अभी इससे।.. अकेली ही हैं।.. पति की बहुत छोटी उम्र में ही मृत्यु हो गई थी।’

‘अच्छा। मेरी भी नमस्ते कहना।’

पति आश्वस्त होकर वापस अपने काम में व्यस्त हो चुके थे।

झूठ बोलना अच्छा तो नहीं लगा था, पर बोल चुकी थी नेहा। छल, जो मां के साथ नहीं कर पाई थी, आज पति के साथ जाने किस दबाव के रहते, कर चुकी थी और अब उस बोझ तले वाकई में दम घुट रहा था उसका।

नेहा ने जिन्दगी में पहली बार झूठ बोला था। उसकी आत्मा ने बाहर झांक कर खुली हवा में सांस लेना चाहा तो पाया कि ‘विच’ अभी भी सामने खड़ी मुस्कुरा रही थी।…

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