
मेरा अपराध
– उषा राजे सक्सेना
उन दिनों मेरे पिता पोर्टस्मथ में एक जहाजी बेड़े पर काम करते थे।
उनकी अनुपस्थिति और अकेलेपन को न झेल पाने के कारण मेरी कम उम्र मां को पीने की लत पड़ गई।
पिता हर तीन महीने बाद घर आते। जब वे घर होते तो वे ममी से एक पल की भी जुदाई नहीं सहन कर पाते। उनके साथ ममी या तो बेडरूम में होती या पब में। ममी की हिदायत थी कि जब तक डैडी घर में हों हम बच्चे कम से कम समय उनके सामने आएं। मुझे तो उनके सामने जाने की सख्त मनाही थी। मैं अपना बिस्तर उन दिनों दु-छत्ती (एटिक) में लगा लेती। स्कूल से आते ही मैं रसोई के वर्क-टाप पर रखे सैंडविच का पैकेट और पानी की बोतल उठा चूहे की तरह खामोश, लटकने वाली सीढ़ियां चढ़ एटिक में पहुंच, ट्रैप-डोर बंद कर लेती। दु-छत्ती में रहना मुझे कोई बुरा नहीं लगता था। वह मेरे अकेलेपन को रास आता। उन दिनों मैं वहां अपनी एक अलग दुनिया बसा लेती। एटिक में दुनियां भर के अजूबे और गैर-जरूरी पुराने सामान ठुसे हुए थे। इन सामानों से खेलना, और उन्हें इधर-उधर सजा-संवार कर रखना मुझे अच्छा लगता था। अक्सर मैं वहां रखे लाल रंग के बीन-बैग पर बैठ खिड़की से सड़क पर आते-जाते वाहनों या पड़ोसियों के पिछवाड़े वाले बगीचे में लगे पेड़-पौधों, गिलहरियों और कुत्ते-बिल्लियों को इधर-उधर दौड़ते-भागते, चिड़ियों और खरगोशों का पीछा करते देखती या फिर पुराने जमाने के बने गुदगुदे ‘सेशलॉग’ पर स्लीपिंग बैग बिछा उसमें घुस सो जाती।
सुबह, तीन साल के छोटे रॉनी को सोता छोड़ हम तीनों भाई-बहन ममी-डैडी के उठने से पहले दूध के साथ कॉर्न-फ्लेक्स या वीटाबिक्स जैसी कोई चीज खा, स्कूल भाग लेते। स्कूल में दोपहर का गर्म खाना हमें निःशुल्क मिलता क्योंकि हम लोग कम वेतन वाले परिवार से आते थे। मैं यदि कभी गलती से डैडी के सामने पड़ जाती तो वे बिना मेरा कान उमेठे और जूते से ठोकर मारे नहीं छोड़ते। जाने क्यों उनको मुझसे बेहद चिढ़ थी ? मुझे सताने के लिए, वे मेरे सामने फियोना, शार्लीन और रॉनी को चॉकलेट और लॉली देते, उन्हें गोद में बैठाते और मुझे ठोकर मारते हुए तमाचा जड़ते, या पैरों से रौंद कर लॉली या चॉकलेट मेरे सामने फेंक देते। मेरे भाई-बहन मुझे पिटते देख, सहम जाते और डर के कारण कोई मेरी मदद को नहीं आता। मैं उपेक्षिता सदा खामोश और असमंजस में रहती कि मेरा अपराध क्या है? क्यों डैडी मुझसे इस बेदर्दी से पेश आते है? मेरा नन्हा सा मन घायल हो अंदर-अंदर बिलखने लगता।
ममी को घर-गृहथी में कोई रुचि नहीं थी। हमारा घर हमेशा अस्त-व्यस्त रहता। अक्सर हमारी बूढ़ी होती नाना (नानी) बड़-बड़ करती हुई आती और हम बच्चों के साथ घर को ठीक-ठाक कर हमें नहलातीं-धुलातीं और पुराने बचे हुए डबलरोटी को दूध में भिगो कर स्वादिष्ट ब्रेड-बटर पुडिंग या हॉट-पॉट (उबले हुए दालों और सब्जियों की धीमें आंच पर पकी ढीली खिचड़ी) खिलातीं। ममा, नाना की इकलौती संतान थी। नानी, ममा के लापरवाहियों को नजर अंदाज करती हुई अक्सर मुझे हो उनकी मुसीबतों का जड़, कह अपराधबोध से भर देतीं। यद्यपि इसके बावजूद वो हम भाई बहनों को अपना प्यार समान रूप से बांटती। नानी के इस कथन ‘मुसीबतों का जड़’ का अर्थ मैं बहुत बाद में समझ पाई।
डैडी छुट्टियां खतम होने से पहले खाने-पीने का सामान लार्डर में रखने के साथ, ममी के सारे कर्जे भी चुका जाते। ममी स्वभाव से अल्हड़ और अव्यवस्थित थीं। डैडी की अनुपस्थिति में वे अक्सर हमें घर में अकेले छोड़ कर दोस्तों के साथ पब चली जाती थीं। कभी-कभी रात को भी वह घर नहीं आती थी। हमारा घर संदेहों से घिरा हुआ था। पास-पड़ोस के लोग हमारे परिवार के बारे में तरह-तरह की बातें करते थे। मैं बचपन से ही दुर-दुर जैसे अपमानजनक की आदी हो चली थी। सरकारी सोशल वर्कर्स हमारे घर का चक्कर जब-तब लगाते रहते। हमें चुप और सोशल कस्टडी में हर तरह से रहने की आदत-सी पड़ चुकी थी। अक्सर ममी लड़-झगड़ और रो-धोकर, कसमें खाती सोशल कस्टडी से हमें वापस घर ले आती। उस समय तक मुझे नहीं मालूम था कि ममी हमें सिर्फ चिड्रेन्स अलाउंस और सोशल-बेनेफिट के लिए घर लाती थी। हम बच्चे ममी के लिए शतरंज के मोहरे थे।
पहले नानी हमारे घर के बगल वाले घर में रहती थी। सोशल वर्कर की मिनी देखते ही वह पीछे के दरवाजे से हमें अपने घर ले आतीं, या फिर नीचे सोफे पर सोने का बहाना बनातीं। नानी बतातीं दूसरे महायुद्ध में उनका सारा परिवार नष्ट हो गया। ममा उनकी इकलौती औलाद हमेशा से जिद्दी और उन्मुक्त स्वभाव की रहीं। उनमें कभी किसी भी तरह का ठहराव नहीं आया। नानी अब बृद्धाश्रम चली गई हैं। कई वर्षों से डैडी का कुछ पता नहीं है। ममी फिर गर्भवती हो गई और सोशल सर्विसेज ने फिर हमें अपने संरक्षण में ले लिया। इस बार ममी के रोने गिड़गिड़ाने का उनके ऊपर कोई असर नहीं हुआ।
मेरे सभी भाई-बहन गोरे-चिट्टे हैं उनकी आंखें नीली और बाल सुनहरे हैं। पिछले दो वर्षों में मेरे तीनों भाई-बहन एक-एक करके सभी या तो गोद ले लिए गए या स्थाई रूप से किसी फोस्टर पैरेंट्स (पालक अभिवावक) के पास चले गए। न जाने कितने लोग मुझे देखने आए, पर सब मुझे अस्वीकार कर चले गए। मैं कितनी बार विस्थापित हुई, कितने अस्थाई फोस्टर होम्स में रही, कितने अनाथ आश्रमों में पली, कितनी प्रताड़ना झेली और कितनी चोट खाई, अब याद नहीं। मुझे पार्क हाउस चिल्ड्रेस होम में जब लाया गया तब मैं नाक सुड़कती, आठ वर्ष की जिद्दी, दुबली-पतली, उदण्ड गहरी भूरी-काली आंखों, गंदुबी रूखे त्वचा वाली कुछ छोटे कद की बच्ची थी। पार्क हाउस चिल्ड्रेस होम में आए मुझे आठ वर्ष हो चुके हैं। यहां मेरी स्कूलिंग फिर से नियमित रूप से शुरू हुई। पढ़ने-लिखने में मेरा मन नहीं लगता। जब कभी मैं पढ़ने बैठती मुझे उबासियां आने लगतीं या सिर में दर्द होने लगता। पार्क हाउस की नने मुझे घुन्नी, आलसी और जंगली समझतीं, उन्होंने कभी मेरे उलझे मनोविज्ञान और कुंठाओं को समझने की कोशिश नहीं करी।
आए दिन में वहां किसी न किसी छोटी-मोटी शरारत के कारण ‘चिल आउट बे’ में दंडित होती। धीरे-धीरे मैं लापरवाह दिखती निरंकुश और ढींट होती चली गई। ननों को तंग करना, उन्हें चिढ़ाना-बिराना, उनकी नकलें उतारना, मेरी आदतों में शुमार हो चुका था। जब मेरी हरकतों पर मेरे साथी मुंह छुपा कर फिस्स फिस्स हंसतीं तो मैं और भी मूर्खतापूर्ण हरकतें करती और दंडित होती।
अब में सोलह वर्ष की पूरी हो चुकी हूं। उस दिन मुझे नहीं मालूम था कि अगला दिन फिर मुझे अस्थिर और बुरी तरह उद्विग्न करने वाला होगा। सुबह नाश्ते के पश्चात् सिस्टर मारिया ने मुझे अपने कमरे में बुला कर कहा, ‘सोशल वर्कर मिसेज हावर्ड अभी थोड़ी देर में यहां आएगी और तुम्हें असेस्मेंट सेंटर ले जाएंगी।’ मैं अवाक्। यह असेस्मेंट सेंटर क्या होता है? मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसकती सी लगी। मेरी आंखों में आंसू आ गए। दहशतजर्द, मैं वहीं खड़ी रही। थोड़ी देर सिस्टर मारिया अपनी कागजी कार्यवाही में लगी रहीं फिर बिना सिर उठाए उन्होंने आगे कहा, ‘देखो तुम नई जगह जा रही हो। अपने पर नियंत्रण रखना, अपनी बेवकूफियों और शरारतों से पार्क हाउस का नाम मत बदनाम करना।’
‘असेस्मेंट सेंटर क्या होता है मिस ?’ आंख में आए गालों पर लुढ़कने को आतुर आंसुओं को पीते हुए मैंने गले में आई गुठली को गटकते हुए पूछा। सिस्टर मारिया अपने कामों में लगी रहीं। उन्होंने मेरे प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। मानों मेरे प्रश्न का कोई औचित्य नहीं। ‘असेस्मेंट सेन्टर’, शब्द मेरे दिमाग़ में बवंडर की तरह घूम रहा था। मेरे पैरों में से शक्ति निचुड़ती जा रही थी। दिल बैठा जा रहा था। असेस्मेंट सेंटर में से पनिशमेंट सेंटर जैसी बू आ रही थी। मुझे महसूस हो रहा था कि पार्क हाउस की काले चोंगे वाली सिस्टर मारिया पनिशमेंट के लिए मुझे असेस्मेंट सेंटर भेज रही हैं। मैं कोई बुरी लड़की नहीं हूं। मैंने आज तक कोई बुरा काम नहीं किया। बस थोड़ी जिद्दी और शरारती हूं। मेरे साथ की कई और लड़कियां मुझसे भी कहीं ज्यादा शरारती हैं पर उन्हें अक्सर माफ कर दिया जाता है। मैं विभ्रमित (कन्फ्यूज्ड) थी।
सोशल वर्कर कार लेकर आ चुकी थी। रिपोर्ट का भूरा लिफाफा मेरे हाथ में पकड़ा, असंपृक्त भाव से सिस्टर मारिया ने मुझे बाहर जाने का आदेश देते हुए कहा, ‘डेमियन तुम्हारा सूटकेस ले कर आ रही है।’ सब कुछ इतनी जल्दी में किया गया कि मुझे अपने किसी साथी को गुड-बाई कहने तक का मौका नहीं मिला। चारों ओर पसरा सन्नाटा बता रहा था आज अचानक सारा पार्क हाउस किसी जरूरी काम में व्यस्त हो गया है। मेरे जाने की किसी को कोई खबर नहीं। मैं नर्वस और रुआंसी हो उठी।
ऑफिस के बाहर ढोले-ढाले काले और सफेद लिबास में मझोले कद की गबदी सौ एक सोशल वर्कर काले मिनी का दरवाजा खोल कर खड़ी थीं। मैंने संजीदगी से फाइल उसे पकड़ा दी। उसने ‘हेलो’ कहते हुए, मुझे मिनी में बैठने का संकेत किया। मैंने गाड़ी में बैठते हुए गर्दन उठा कर अपनी डॉरमेटरी की ओर देखा, जहां मैं बरसों बरस सोती रही थी। यह सोशल वर्कर मुझे कहां ले जाएगी ? मुझे कुछ पता नहीं था। मेरा मन पारे की तरह थर-थराने लगा। फिर भी मैं खुद को संभाले हुए थी। शायद मेरी जिद्दी मनोवृति मेरी सहायता कर रही थी। ‘अपना खयाल रखना स्टेला’ झाड़ियों के पीछे से पार्क हाउस की सफाई कर्मी डेमियन का झुर्रीदार चेहरा उभरा। डेमियन जिसके अकिंचन स्नेह ने मुझे हताशा की मुश्किल घड़ियों में पिछले सालों में कई बार अकेले में सहलाया था।
‘आप भी अपना खयाल रखना डेमियन।’ कहते हुए मैंने डेमियन के हाथ से अपना सूटकेस ले कर सीट पर रखा। मेरा दिल किया मैं भाग कर डेमियन के गले लग कर खूब रोऊं और कहूं, ‘मुझे असेस्मेंट सेंटर नहीं जाना है, तुम मुझे अपने घर ले चलो।’ पर मैं नामुराद कुछ भी नहीं कह सकी, बस सिर झुका कर गाड़ी का दरवाजा हल्के से बंद कर पार्क हाउस जैसे फीके और बदरंग जीवन को भूल जाने की कोशिश करती रही। सोशल वर्कर के सामने मैं टूटना नहीं चाह रही थी। अतः आंखें मीचे कार के स्टार्ट होने का इंतजार करती रही ।…
सोशल वर्कर ने जैसे ही कार का एन्जिन स्टार्ट किया….. मैंने अपने त्रासद वतर्मान से नाता तोड़ने के लिए तमाम और….. और गैरजरूरी चीज़ों के बारे में सोचना शुरू कर दिया, जैसे ये सोशल वर्कर मिनी ही क्यों चलाती हैं, इन्हें और कोई कार चलानी नहीं आती है क्या ? मेरे जीवन में जितनी सोशल वर्कर आई उन सबके पास मिनी ही थी। यह तो मुझे बाद में पता चला कि ये गाड़ियां उनकी अपनी नहीं, सोशल सर्विसेज की होती हैं।
फिर जैसे ही हम सड़क पर आए, मैंने सूटकेस खोल कर अपना एक मात्र गुलाबी लाइक्रा ड्रेस निकाला। थोड़ी देर उसे गाल से लगा, उसके रेशमी छुअन को महसूस किया। फिर एक झटके में मैंने पार्क हाउस के भद्दे हरे रंग के हैट, कोट और पिनाफोर (एक तरह का फ्रॉक) को उतार सूटकेस में घुसेड़ गुलाबी ड्रेस को इस तेजी से पहना कि सोशल वर्कर मुझे कपड़े बदलते न देख सकें। पर उसकी चील जैसी तेज आंखें लंदन की तेज रफ्तार ट्रैफिक की गति पर लगे होने के बाबजूद मुझ पर निगाह रखे हुए थीं। पीछे मुड़कर उसने मुझे एक पल देखा, फिर सामने ट्रैफिक पर ध्यान लगाते हुए बोली, ‘भागने की कोशिश बेकार है दरवाजों में सेफ्टी लॉक है।’ फिर हंसती हुए बोली, ‘मेरा अनुभव बताता है तुम भगोड़ी नहीं हो, क्यों ?’ उसकी हंसी में लिपटा व्यंग्य मुझे अंदर तक चीर गया। मैंने कोई उत्तर नहीं दिया। यूनीफॉर्म उतारने के बाद मैं कुछ सहज महसूस कर रही थी।
यह गुलाबी ड्रेस मेरी बड़ी बहन फियोना की उतरन थी, जिसमें से उसके बदन की खुशबू आ रही थी। कहां होगी फियोना ? कहां होंगे रॉनी और शर्लीन ? और कहां होगा नन्हां बेन ? हमने एक-दूसरे को पिछले वर्ष ममा के जनाजे के वक्त कब्रगाह में एक दूसरे को दूर से देखा था। सोचते हुए दूसरे ही क्षण मेरा ध्यान इन सब से हट कर अपने वर्तमान, अपने विस्थापन पर गया कि आखिर मेरा अपराध क्या है? लोग क्यों मुझे ही देखते मुंह फेर लेते हैं? आखिर मैं ही क्यों अस्वीकृत होती हूं? थोड़ी बहुत छेड़खानी तो मेरे साथ की सभी लड़कियां करती हैं। पर फिर मुझे ही क्यों सजा मिलती है? उनको सजा क्यों नहीं मिलती ? मुझे ही असेस्मेंट सेन्टर क्यों भेजा जा रहा है? उन्हें क्यों नहीं भेजा जा रहा है? मेरे दिमाग में प्रश्नों की घुड़-दौड़ मच रही थी।
कहीं मैं कोई ऐसी-वैसी हरकत न कर बैठूं, इसलिए सोशल वर्कर मुझे बातों में लगाए रखना चाह रही थी। मेरा मन उद्विग्न और बोझिल था। मुझे मितली सी आ रही थी। फिर मैं उसकी दिखावटी-बनावटी बातों का जवाब भी नहीं देना चाह रही थी। उल्टी रोकने के लिए मैंने लंबी-लंबी सासें लेते हुए सड़क के किनारे लगे पेड़ों को बेमतलब गिनना शुरू कर दिया।
‘तुम्हें मालूम है हम कहां जा रहे हैं?’
मालूम होने से क्या होता है? सभी जगहें एक सी बेहूदी होती हैं, मैंने मन-ही-मन उसे मुंह बिराते हुए कहा।
‘मालूम हम रेडिंग जा रहे है।’
मैंने कभी रेडिंग का नाम नहीं सुना था। मुझे यह भी नहीं पता था कि रेडिंग, पार्क हाउस के किस ओर और कितनी दूरी पर है।
मेरी चुप्पी शायद सोशल वर्कर को खतरनाक लग रही थी। उसका बार-बार होठों पर जबान फिराना, बालों को बेमतलब कानों के पीछे खोंसना बता रहा था कि वह मेरो खामोशी से चिंतित और नर्वस हो रही है। शायद मेरे बारे में उसे पहले ही खबरदार कर दिया गया है कि मैं एक भयंकर मुसीबत हूं और किसी समय कुछ भी खुराफात कर सकती हूँ। ट्रैफिक पर नजर रखते हुए भी वह ऊपर लगे शीशे में मुझे लगातार देखे जा रही थी।
‘रेडिंग एक अच्छा शहर है तुम्हें वहां अच्छा लगेगा।’ उसने कहा, पर मैं फिर भी खामोश रही। मेरा जी अभी भी मितला रहा था। सोशल वर्कर की जबान टेप रिकार्डर सी चलती रही।
‘सुनो, तुम्हारे कितने भाई बहन हैं?’ जैसे मेरा कोई नाम नहीं है। भूरे लिफाफे पर मेरा नाम लिखा हुआ था। वह चाहती तो मुझे मेरे नाम से बुला सकती थी। डेमियन ने मुझे मेरे नाम से पुकारा था।
मैं चुप…. मुझे उससे कोफ्त हो रही थी।
‘तुम्हारे दोस्तों के क्या नाम है?’
…….
‘तुम्हारा प्रिय पॉप सिंगर कौन है?’
तुम कौन सी मैगजीन पढ़ना पसंद करती हो ?’ आदि-आदि
…….
मेरे पेट में ऐंठन और उमड़-घुमड़ शुरु हो गई, मुंह में खट्टा और कसैला पानी भरने लगा, एक हाथ से पेट पकड़े दूसरे से मुंह दबाए मैंने दयनीय स्वर में कहा, ‘मुझे उल्टी आ रही है। गाड़ी रोको प्लीज।’ उसने एक बार फिर मुझे गहरी नजर से देखा। मेरा चेहरा जर्द और बेजान हो रहा था। खिड़की का शीशा गिराते हुए ट्रैफिक लाइट से कुछ पहले उसने झटके से पास की गली में गाड़ी मोड़ दी,
‘थैंक गॉड, तुमने मुझे पहले ही आगाह कर दिया, अगर कहीं मैंने मोटर-वे ज्वाइन कर लिया होता तो मुसीबत हो जाती। मेरा घर पास में ही है। मैं तुम्हें अपने घर ले चलती हूं। वहां मैं तुम्हें उल्टी रोकने वाली गोली दूंगी। बस थोड़ी देर में तुम ठीक हो जाओगी।’ मुझे सहज करने के लिए वह मुस्कराई, उसके प्रति मेरे विचार में बदलाव आया, मुझे लगा यह सोशल वर्कर दूसरे सोशल वर्करों की तरह रूखी और बदजबान नहीं है।
थोड़ी ही देर में हम उसके घर पहुंच गए।
जैसे ही कार रुकी, मेरी सांस में सांस आई, बाहर निकलते ही मुझे दो-तीन छोटी-छोटी डकारें आई और मैं कुछ बेहतर महसूस करने लगी। मैं समझती थी कि सोशल वर्करों के घर साफ-सुथरे और व्यवस्थित होते होंगे क्योंकि वे दूसरों के घरों के निरीक्षण करतीं है। पर यहां तो नजारा ही दूसरा था। मिस हावर्ड के रसोई की आलमारियां में से कोई खुली, तो कोई बंद थी। चारों तरफ जूठे गिलास, मग, तश्तरियां और खाने पीने के अधखुले पैकेट बिखरे हुए थे। ढूंढ-ढांढ कर किचन कैबिनेट की ड्रॉर से उसने एक पुरानी सी डिब्बी में से दो गोलियां निकाल कर मेरे हाथ पर रखते हुए पानी का गिलास पकड़ाया और कहा, ‘लो इन्हें गटक लो।’
दवा का पैकट मुड़ा-तुड़ा और बदरंग था। भगवान जानें, कितनी पुरानी गोली है? शायद इसकी तारीख़ भी निकल चुकी होगी। सोचते हुए मैंने कहा ‘नहीं अब मैं बेहतर महसूस कर रही हूं, मुझे गोलियों की अब कोई जरूरत नहीं हैं।’ और मैंने गोलियां रसोंई के वर्क-टॉप पर रख दीं।
मिस हावर्ड ने मेरी हिचकिचाहट भांप ली, और हंसते हुए बोलीं, ‘मैं तुम्हे ज़हर थोड़े न दे रही हूं ये यात्रा में उल्टी रोकने की गोलियां हैं। खालो, अभी रास्ता लंबा है। इनकी तारीखें अभी निकली नहीं हैं।’ मेरे पास गोलियों को निगलने के अतिरिक्त कोई और चारा नहीं था। वह मेरे सिर पर खड़ी थी। गोली निगलने के थोड़ी ही देर बाद मुझे आराम महसूस हुआ। मेरे जर्द चेहरे की रंगत बदली और हम गाड़ी में वापस आ कर बैठ गए। मोटर-वे पर जब मिनी साठ और सत्तर की रफतार से दौड़ी तो मुझे झपकी आ गई। मेरी नींद तब खुली जब मिस हावर्ड गाड़ी रोक कर किसी राहगीर से असेस्मेंट सेंटर का रास्ता पूछ रही थी। थोड़ी ही देर में तीन-चार ट्रैफिक लाइट पार कर हम यॉर्क-शायर पत्थरों से बने एक विशाल भवन के ऊंचे गेट पर पहुंचे जिसके चारों ओर ऊंचे फेन्स लगे हुए थे। गेट के दोनों ओर कोनिफ़र के ऊंचे पेड़, प्रहरी से खड़े थे। बीच रास्ते पर लाल बजरी बिछी हुई थी। जब तक मैं अलसाई-अलसाई गाड़ी से उतरूं, सोशल वर्कर ने आगे बढ़ कर दरवाजे की घंटी बजा दी। काली जीन्स और पीली टी-शर्ट पहने भूरे घुंघराले बालों वाले एक साधारण कद-काठी के आदमी ने हंसते हुए ‘हाय यंग लेडीज’ कहते हुए हमारा स्वागत किया। गाड़ी से उतरते हुए मैं सोच रही थी कि कहीं यहां की बागडोर भी तो कड़वैल ननों जैसे लोगों के हाथ में नहीं है? पर उस आदमी की पोशाक, हंसमुख चेहरे और आकर्षक बात-व्यवहार को देख कर लगा कि शायद मेरी सोच गलत रही है।
उस आदमी ने आगे बढ़कर मुझसे और मिस हावर्ड से हाथ मिलाते हुए कहा, ‘वेलकम टु एजहिल असेस्मेंट सेंटर ।’ फिर उसने मेरी तरफ़ देख कर कहा, ‘हाय मिस रॉजर्स ।’ पहली बार किसी ने मुझे इतने आदर से संबोधित किया था। वह आदमी मुझे अच्छा लगा।
अभी हम अंदर आकर उस लाउंजनुमा कमरे में बैठे ही थे कि उसका एक दूसरा साथी लाल-हरे बालों की पोनी टेल बांधे, पीले टी-शर्ट और डंगरी में लॉरल (लॉरल एंड हाडों-अमेरिकन कॉमेडियन) जैसी हास्यप्रद हरकतें करता, अधसोया, आंखे मिचमिचाता जंभाई लेते हुए मेरे सामने वाली कुर्सी पर लड़खड़ाते हुए आ कर बैठ गया। थोड़ी देर वह अपनो काली चमकीली आंखें गोल-गोल घुमाता, पलकें झपकाता मुझे देखता रहा, फिर हाथों से प्याला बना, कॉफी सुड़कने का अभिनय करते हुए दांत निपोरता हुआ बोला, ‘कॉफी?’
इसके पहले कि मैं कुछ कहूं, उसने परक्यूलेटर में से कॉफी निकाल कर मेरे हाथों में लाल रंग का एक मग पकड़ा दिया, फिर सिपाहियों की तरह सैल्यूट मार कर, टेढे-तिरछे कदम रखते इधर-उधर हो गया। अजीब जोकर है इसे तो सरकस में होना चाहिए, सोचते हुए में हंस पड़ी। यह कैसी जगह है? इस जगह का परिवेश तमाम उन जगहों से पूर्णतः भिन था जहां मैं अभी तक समय-समय पर रही थी। फिर जरा ही देर बाद उस जगह का अजनबीपन मुझे भयभीत करने लगा। मुझे ठंढा पसीना आने लगा। उस बड़े से कमरे में अपने-आपको अकेले पाकर मैं इस कदर नर्वस हो गई कि मेरी रुलाई छूट पड़ी। मन में जाने कैसे-कैसे संशय उभर रहे थे। इस बीच सोशल वर्कर जाने कब मेरी फाइल लेकर पीले टी-शर्ट वाले आदमी के साथ उसके आफिस में खिसक गई। साउंड-प्रूफ ऑफिस का दरवाजा पूरी तरह बंद था। पर फिर भी ‘जिद्दी’, ‘असभ्य ‘मंद-बुद्धि’, और ‘काहिल’ जैसे शब्द अपने-आप मेरे कानों में प्रविष्ट होते चले गए। शायद वह लोग मेरे ही बारे में बातें कर रहे थे। अभी दस मिनट ही बीते होंगे कि सोशल वर्कर अपना ब्रीफकेस लिए बाहर आ गई। चलते-चलते उसने पीले टी-शर्ट वाले से हाथ मिलाते हुए कहा, ‘फिर में चलती हूं, अब यह तुम्हारे संरक्षण में। गुड लक मेट!’ फिर पलटकर मेरी ओर देखकर वह मुस्कराई, हाथ हिलाया और फटाफट गाड़ी स्टार्ट कर चलती बनी। जाने क्यों उसकी मुस्कराहट मुझे अच्छी नहीं लगी, ‘ब्लडी सोशल वर्कर!’ मैंने मन ही मन उसे गाली दी।
पीले शर्ट वाला शायद वहां का मैंनेजर था, उसने मेरी बांहों को थपथपाते हुए मुझे अपने कमरे में आने को कहा जो कि उसका ऑफिस था। आफिस के सामने वाली दीवार पर एक बड़ा चार्ट टंगा हुआ था जिस पर कई नाम लिखे हुए थे। इन नामों के बगल में विभिन्न रंगों के चिप्पड़ लगे हुए थे। अब मेरा नाम भी इस लिस्ट में जुड़ जाएगा, पता नहीं किस रंग की चिप्पड़ मेरे आगे लगेगी, मैंने सोचा। बाद में मुझे इन चिप्पड़ों के ‘कलर कोड’ के अर्थ का पता चला कि ये चिप्पड़ विभिन्न सेवाओं के द्योतक थे जैसे साइकैट्रिक, साईक्लोजिस्ट, स्पीच थेरैपी, स्पेशल हेल्प आदि…आदि…
पीले शर्ट वाले ने मुझे बताया कि उसका नाम पीटर हैरिंगे है और वह इस असेस्मेंट सेंटर की देख-रेख अपने अन्य सहयोगियों और सदस्यों के साथ करता है। आगे उसने असेस्मेंट सेंटर का उद्देश्य बताते हुए मुझे संबोधित करते हुए कहा, ‘मिस रॉजर्स नहीं । नहीं, स्टेला, क्यों ठीक है न? हम इस सेंटर में सबको उनके पहले नाम से ही बुलाते हैं क्योंकि यहां कोई बॉस नहीं है सब दोस्त हैं। हम सब मिल कर आपस में विचार-विमर्श कर सेंटर का प्रबंधन करते हैं। यह असेस्मेंट सेंटर एक प्रगतिशील प्रयोगशाला है।’ मैं चुप, वह जो कुछ कह रहा था वह सब मेरे लिए बिल्कुल नया था, मेरे अबतक के अनुभव के बाहर। आज तक किसी ने मुझसे इस तरह सम्मान देकर बात नहीं की थी। मैं बार-बार अंदर ही अंदर संकुचित हो जाती। आगे उसने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए मुझे मेरे पहले नाम से संबोधित करते हुए कहा, ‘स्टेला!’ हमारी पूरी कोशिश होती है कि इस असेस्मेंट सेंटर में आने वाली हर किशोरी को आठ-दस हफ्ते के अंदर या तो किसी अच्छे परिवार में जगह मिल जाए या वह किसी वोकेशनल ट्रेनिंग में लग जाए या फिर छोड़ी हुई अपनी पढ़ाई चालू कर ले।’ उसने कुछ किताबें और कॉमिक्स मेरे हाथ में देते हुए कहा, ‘इस समय सेंटर में दस लड़कियां है जिनमें से तीन लड़कियों के फोस्टर पैरेंट्स मिल चुके हैं, वे दो-तीन दिन में चली जाएंगी।’ मेरा क्या होगा? क्या मुझे भी कोई फोस्टर करेगा? मैं अपने भविष्य की कोई तस्वीर नहीं बना पा रही थी। मेरी हीन ग्रंथियां मुझे अपने शिकंजे में कस रही थीं। मेरा उदास चेहरा, रीढ़ की झुकती हड्डी और सिकुड़ते कंधे मेरे अंदर की बेचैनी को मुखर कर रहे थे। पीटर थोड़ी देर मुझे गौर से देखता रहा फिर कुर्सी से उठते हुए स्मित हास्य से बोला,’ आओ स्टेला, चलो ! तुम्हें सेंटर के भूगोल से परिचित करा दूं।’
मैं बेमन से उठ खड़ी हुई और उसके साथ भारी कदमों से चल पड़ी।
पीटर जो कुछ कह रहा था वह सब पूरी तरह से मेरी समझ में नहीं आ रहा था। पर उसके व्यक्तित्व में कुछ ऐसा था कि उसके साथ चलने में मुझे तनाव नहीं अजब सा सकून और भरोसे का आभास मिल रहा था। सेंटर का रख-रख-रखाव, सुंदर, प्रियदर्शी निखरे हुए शोख रंग इस तरह के थे मानो मुझसे कह रहे हों, आओ मुझे आजमाओ, मुझे जानो, मुझे परखो। यहां दुराव या चुनौती नहीं दोस्ती जैसा कुछ आभास हो रहा था।
निचले तल्ले पर बने लाउंज, किचन, लाइब्रेरी आदि दिखाने के बाद सीढ़ियां चढ़ते हुए उसने पहले तले पर एक सीधी रेखा में बने वॉशरूम्स की ओर इंगित करते हुए कहा, ‘इस तल्ले पर पांच वॉशरूम और एक फैमिली रूम है जिसमें टेलिविजन और हल्के-फुल्के रीडिंग मैटीरियल रखे होते है। उसके बगलवाला वह बड़ा सा कमरा जिम है जिसे मार्टिन सुपरवाइज करता है। उसके सामने वाला कमरा, वह रंग-बिरंगे दरवाजेवाला, हमारी नाट्यशाला है जिसका प्रबंधन शोहेब और सुब्रीना करते है।’ ऊपर तीसरे तल्ले की सीढ़यां चढ़ते हुए पीटर ने कहा, शोहेब अच्छा खासा जोकर है, नकलें बनाने में तो ऐसा उस्ताद है कि इंसान हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाता है।’ पीटर मुझसे इस तरह बात कर रहा था जैसे कि मैं उस पर थोपी गई कोई अनाथ नहीं, उसकी कोई मेहमान हूं। मुझे उसकी बातें अच्छी लग रही थीं। मेरे अंदर के फ्यूज बल्ब धीरे-धीरे जलने से लगे थे और मैं अपनी तंग गलियों से बाहर आने लगी ।…
‘सच। मुझे भी नकलें बनाने में बड़ा मज़ा आता है। पार्क हाउस में जब मैं ननों की नकलें उतारती तो मेरे साथी खूब हंसते पर मैं चिल आउट कॉर्नर में सजा पाती।’ कहने को तो मैं कह गई पर फिर अपने आप में किसी साही (हेजहॉग) की तरह सिकुड़ गई।
उसने शायद मेरा पिछला वाक्य नहीं सुना या सुना तो अनसुना कर दिया।
‘अरे बाह। यह तो बड़ी बढ़िया बात है स्टेला। तो तुम विदूषक (कॉमेडियन) हो। इस यहां अपने सेंटर में हर महीने एक कॉमेडी शो करते है। लोकल ओल्ड पीपुल्स होम (स्थानीय वृद्धाश्रम) के शौकीन उसे देखने आते हैं। तुम्हें यहां अपने इस हुनर को विकसित करने के बड़े अवसर मिलेंगे।’
‘अरे ! नहीं’
‘अरे! हां’ पीटर ने मेरी नकल बनाई, मैं हंस पड़ी। मेरे अंदर जमी बर्फ-शिला पिघलने को आतुर हुई … मैंने कहा,
‘वह डंगरी पहने, पोनी डेल वाला लॉरल, शोहाब था क्या?’ मेरी झिझक टूट रही थी।
‘हां, पक्का जोकर है, मसखरा। पर अपना काम पूरी मुस्तैदी से करता है।’
‘अच्छा, लगता तो सिर्फ मसखरा है।’
‘वह तो तुम्हें सहज करने के लिए उसने महज एक प्रयास किया था।’ मैं फिर यूं ही फिस्स से हंस पड़ी। उससे बात करना मुझे अच्छा लग रहा था।
सेकेंड फ्लोर पर दस कमरे थे। पांच नम्बर के कमरे पर मेरे नाम का लेबल चिपकाते हुए पीटर ने कहा, ‘लो यह रहा तुम्हारा कमरा।’ साथ ही कमरे में लगे लॉकर की चाबी देते हुए बोला, ‘और यह रहा तुम्हारा लॉकर। तुम अपने कपड़े और मेकअप आदि का सामान इसमें रख, इसे लॉक कर सकती हो।’ मेरा अपना कमरा, मेरा अपना लॉकर इतनी सुलभताएं। यक़ीन नहीं आ रहा था।
सेंटर की बनावट और साज-सज्जा पार्क हाउस के पुराने-फीके ढंग के रख-रखाव के बिल्कुल उलट आधुनिक, नए रंगों में रचा-बसा था। ऐसा स्वतंत्र, प्रियदर्शी वातावरण! अचानक पिघलती शिला फिर हिम खंड बन गई। एक बिल्कुल नए तरह के भय और आशंका से मेरा दिल दहलने लगा। कैसे रह पाउंगी इस खुले, उन्मुक्त, शोख वातावरण में? मुझे तो ट्टुओं की तरह बंधे पांव से चलने की आदत है। पीटर ने जाने कैसे मेरे अंदर होने वाले हलचल को पहचान लिया। उसने एक बार फिर हलके से मेरा कंधा थपथपाया और मुझे समझाते हुए बोला—’यह जगह संरचनात्मक है। पुनर्वास का है। घबराओ मत स्टेला। यहां और भी तुम्हारी ही जैसी कठिन परिस्थितियों की दास बन कर रह गई लड़कियां रहती हैं। अभी साढ़े तीन बजे हैं। दस-पंद्रह मिनट में लड़कियां ट्रेनिंग सेंटर से वापस आ जाएंगी, फिर सेंटर का सन्नाटा ऐसा टूटेगा कि लगेगा ही नहीं कि यहां कभी सन्नाटा था।’
पीटर के बोलने का ढंग उसके स्वरों का उतार-चढ़ाव उसके शब्द-शब्द मेरे खंडित हो रहे आत्मविश्वास को मानो किसी अदृश्य फेबिकोल से जोड़ते हुए आश्वस्ति में बदल रहे थे। मेरे अंदर आशा की एक लहर थरथराई… ऐसा सहृदय, ऐसा संवेदनशील और मेरे मन में उठते हर तरंग को समझने वाला पथ-प्रदर्शक अगर पहले मिल गया होता तो….
‘देखो ये लड़कियां बिलकुल भिन्न शहरी परिवेश से आती हैं अतः ये तुमसे बहुत भिन्न मुंहफट्ट, चुलबुली, दादा टाइप और दंगेबाज हैं। पर सब दिल की अच्छी हैं। जैसी भी हैं उन सबमें कई अच्छे जन्मजात गुण भी है। उनके ये गुण उनकी परिस्थितियों और परिवेश ने कुचल कर अवरुद्ध कर दिए हैं। पर धीरे-धीरे उनमें आत्मविशवास के साथ जीवन के प्रति नए दृष्टिकोण भी पनप रहे हैं।’ मेरी आंखों में आश्चर्य उभर आया, यह पीटर क्या मुझे, मेरे ही बारे में इन लड़कियों के बहाने से बता रहा है।
‘पीटर, तुमने मेरी रिपोर्ट पढ़ी?’ मैं थोड़ी सतर्क हुई।
‘नहीं, मैं रिपोर्ट असेस्मेंट के बाद पढ़ता हूं।’ मेरे बाएं बांह को अपनी मुट्ठी के गाठों से सहलाते हुए उसने मुझे आश्वस्त किया।
‘क्यों?’
‘क्योंकि मैं पहले खुद किताब पढ़ता हूं फिर आलोचकों की प्रतिक्रिया पर गौर करता हूं।’ वह मेरी ओर देखकर मुस्कराया, प्रतिक्रिया में मैं भी मुस्करा उठी। मैं फिर सहज हो उठी।
‘तुम मेरी रिपोर्ट कभी मत पढ़ना पीटर ?’ मैंने बच्चों की तरह मचल कर कहा।
‘नहीं पहुंगा। नहीं पढुंगा।’ उसने अपने कानों को हाथ लगा, भौंहों को ऊपर उठा, गोल-गोल आंखें घुमा, सीने पर क्रॉस बना, जोकरों सा हसोड़ मुंह बनाया। मैं खिलखिला कर हंस पड़ी।
‘तुम हंसती हो तो आकर्षक लगती हो। तुम्हारी आंखों की चमक बढ़ जाती है और तुम्हारे नन्हें-नन्हें दांत मोतियों से दमकने लगते है।’
‘पीटर !’ मैं चीखी ‘तुम मेरा मजाक मत उड़ाओ! अगर मैं ऐसी ही खूबसूरत होती तो अब तक किसी ने मुझे गोद क्यों नहीं लिया, किसी ने मेरी फोस्टरिंग क्यों नहीं की। मेरा बाप मुझे ठोकरें क्यों मारता रहा था।’ मेरी आंखों से आंसू निकल पड़े। मेरी आवाज कांपने लगी।
‘मैं क्यों लावरिसों की तरह एक जगह से दूसरी जगह फेंकी जाती रही, जबकि मेरे सभी भाई बहन और साथी एक-एक कर के चयनित होते गए, अच्छे ऊंचे घरों में स्थापित होते रहे और में अपमानित और कुंठित होती रही। मुझे नहीं मालूम मेरा अपराध क्या है?’ कहते- कहते मैं बिस्तर पर गिर, घुटने में सिर छिपा, फूट-फूट कर रोने लगी। पीटर वहीं पास पड़ी कुर्सी पर बैठा थोड़ी देर मुझे रोता देखता रहा, फिर उठ कर नीचे चला गया, जब लौटा तो उसके हाथ के ट्रे में चाय के दो मग, सैंडविच और पानी के गिलास थे। उसने पानी का गिलास मुझे पकड़ाते हुए कहा, ‘यह अच्छा हुआ कि तुम रो पड़ी। जाने कबसे यह रुदन। यह घुटन तुम्हारे अंदर कैद थी। कभी-कभी रो लेना सेहत के लिए अच्छा होता है।’ उसने पास रखे टिश्यू बॉक्स को मेरे हाथ में पकड़ाते हुए कहा, ‘यह जीवन विसंगतियों से भरा हुआ है। इसका कोई समीकरण नहीं है।’
‘क्यों ? क्या, तुमने यह नाटक, ये शब्द, यह व्यंग्य मुझे रुलाने के लिए कहे थे, पीटर ? तुम भी और लोगों की तरह मुझे जंगली, बेवकूफ और मंदबुद्धि समझते हो।’ मेरे देह की सारी नसें तनी हुई थीं। मेरी आंखों से चिनगारियां निकल रही थीं।
‘नहीं!’ पीटर ने छोटा सा उत्तर देकर मानों मुझे खारिज कर दिया। मेरे तन-बदन में आग लग गई, मैंने आग्नेय नेत्रों से उसे देखते हुए कर्कश आवाज में कहा,
‘झूठ, पीटर, झूठ ! मैं जानती हूं कि मैं खूबसूरत नहीं हूं। तुमने मुझे खूबसूरत क्यों कहा ? मेरी दुखती रग पर कटाक्ष क्यों किया ? ईमानदारी से जवाब दो।’ मैं फिर आवेश में आकर सुबकने लगी।
‘स्टेला, मैंने तुम्हें खूबसूरत नहीं कहा।’ पीटर की प्रौढ़ आवाज संतुलित और गंभीर थी। जाने कैसे में दत्तचित उसे सुनने के लिए तैयार हो गई।
‘मेरे शब्दों को याद करो। मैंने कहा था जब तुम हंसती हो तो आकर्षक लगती हो।’
‘एक ही बात’ में फिर जिद पर उतर आई।
‘नहीं, यह एक ही बात नहीं है। एक तीखे नाक-नक्श वाला खूबसूरत इंसान यदि हीन ग्रंथियों से ग्रसित, सदा मुंह लटकाए रहता है तो उसके तीखे नाक-नक्श पर किसी की दृष्टि नहीं पड़ती है, इसलिए वह आकर्षक नहीं लगता, उसकी खूबसूरती किसी को नजर नहीं आती। पर एक साधारण मुखाकृति वाला भी जब खिलखिलाकर हंसता है तो वह आकर्षक और खूबसूरत हो उठता है।’ उसने मेरी आंखों में सीधा देखते हुए कहा,
‘तुम्हारी बातों में सच्चाई है।’ मैं फिर सहज होने लगी। मेरी ग्रंथियां खुल रही थीं। मुझे पीटर से इस असभ्यता से बात करने का कोई हक नहीं है। मैंने अपने आप को मन ही मन धिक्कारा।
‘सॉरी पीटर, मुझे तुमसे इस तरह की बातें नहीं करनी चाहिए।’
पीटर ठहाका मार कर हंस पड़ा, उसकी हंसी मुझे अच्छी लगी।
‘क्यों नहीं करनी चाहिए ? तुम्हें किसी की कोई बात ठीक नहीं लगती तो तुम्हें पूरा अधिकार है कि तुम अपना विरोध जाहिर करो। अगर हम अपनी प्रतिक्रियाओं को अभिव्यक्त नहीं करेंगे तो लोग हमें सुनेंगे कैसे ? हमारे इस सेंटर में भिन्न-भिन्न परिवेश के लोग आते हैं। कुछ अपराधी प्रवृति के होते है उनकी सोच बिल्कुल अलग होती है। पर हम यहां खुलकर आपस में एक-दूसरे के विचारों पर टिप्पणियां देकर अपनी-अपनी प्रतिक्रियाएं जाहिर करते है। इसी तरह हम एक-दूसरे को कभी एक बार में, कभी धीरे-धीरे समझने लगते है।’ पीटर की आंखों में सच्चाई और ईमानदारी थी। मैं फिर सहज होने लगी, मेरी ग्रंथियां फिर खुलने लगी, अतः वाचाल हो उठी,
‘मालूम पार्क-हाउस की नने गोरी-चिट्टी होने के बावजूद मुझे कभी सुंदर नहीं लगीं, वे मुझे हमेशा चुड़ैल लगतीं, पर बूढ़ी डैमियन का झुर्रीदार चेहरा फरिश्ता सा कोमल लगता, वह मेरी, मरियम थी….’
पीटर मेरी बातें सुन कर मुस्कराया, उसकी मुस्कराहट ने मुझे कुछ और आश्वस्ति प्रदान की।
‘मुझे खुशी है कि तुम अपने आप से बाहर आ रही हो। आश्वस्त हो रही हो।’ कहते हुए पीटर ने ट्रे में रखे हुए सैंडविच की ओर इंगित करते हुए कहा ‘यह रहा तुम्हारा लंच। चाहो तो तुम आराम करो अन्यथा नीचे ऑफिस में आ जाओ। शायद असेस्मेंट सेंटर के बारे में तुम और कुछ भी जानना चाहो।’
‘ हां, ठीक है पीटर, मैं फ्रेश होकर आती हूं।’
‘अरे हां’ चलते-चलते वह बोला, ‘कल सुबह तुम्हारा असेस्मेंट होगा, तुम्हारे स्कोर पर, तुम्हारी रुचि के अनुसार, तुम्हें वोकेशनल ट्रेनिंग के लिए भेजा जाएगा। और सुनो एक खुशखबरी, तुम्हारे बेनेफिट (अनएम्प्लॉएमेंट भत्ता) के पेपर्स आ चुके हैं। कल मार्टिन के साथ जा कर जायरो बैंक में अपना एकाउंट खोल लेना। अब तुम आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो, बैंक में आए पैसों का प्रबंधन तुम कैसे करोगी यह तुम्हारे ऊपर निर्भर करता है। बैंक पेपर्स, पिन नम्बर, चेकबुक, क्रेडिट कार्ड बेहद संभाल कर लॉकर में रखना होगा। ठीक… पैसे भी संभाल कर खर्च करने होते है। इन पैसों की बजटिंग करनी होती है, तब कहीं जाकर पूरे हफ्ते का खर्च चल पाता है।’
इतनी जटिल, इतनी सुंदर बातें, इतने धीरज और विस्तार से! जीवन में पहली बार किसी ने मुझे इतना महत्व और समय दिया। कृतज्ञता से मेरा दिल भर आया।
मैंने ‘हां’ में सिर हिलाते हुए पीटर को आश्वस्त किया।
उसने उंगलियां मोड़ कर गाठों से मेरे गाल को सहलाया।
‘मुझे यहां कब तक रखा जाएगा?’
‘तुम्हारे अगले जन्मदिन तक, जबतक तुम सतरह वर्ष की नहीं हो जाओगी।’
‘फिर?’
‘इस एक वर्ष में तुम्हें बाह्य संसार से ताल-मेल बैठाने के अवसर बार-बार मिलेंगे, टेम्पिंग (शॉर्ट टर्म की नौकरियां) करने को मिलेगी और तुम समाज में रहना और उसके ऊंच-नीच को समझना सीख जाओगी।’
‘और कोई प्रश्न माई डीयर ?’
‘अभी नहीं, इतना सब कुछ पचा सकना आसान नहीं है मेरे लिए। मुझे जीवन का कोई अनुभव नहीं है। मैं सदा आश्रिता रही। पर मैं तुम्हारी आभारी हूं। तुमने मुझे इतना समय दिया।’ वह फिर वही मीठी हंसी हंसा,
‘यह तो मेरी नौकरी है। रिलैक्स, ओके। फिर मैं चलता हूं।’
‘यस पीटर।’ लोग इतने भी अच्छे और सहज हो सकते हैं। सहसा मुझे लगा कहीं मैं कोई सपना तो नहीं देख रही हूं।
पीटर के जाने के बाद मैंने उस छोटे से कमरे की दीवारों की ओर देखा जिस पर नन्हें-नन्हें सुर्ख फूलोंवाला हल्के नीले रंग का पेपर लगा हुआ था। एक कोने में टेबुल चेयर, पलंग और लॉकर के साथ एक सुर्ख रीडिंग लैम्प। कमरे की साज-सज्जा मुझे अच्छी लगी, यह मेरा अपना कमरा है। सोचते हुए लॉकर में कपड़े रख कर मैंने उसका दरवाजा बंद किया और बिस्तर पर आ कर लेट गई। कब आंख लगी पता नहीं।
अचानक भयंकर शोर-गुल के साथ धम-धम सीढ़ियां चढ़ने की आवाज आनी शुरू हो गई। ऐसा लग रहा था मानो भूचाल आ गया हो। शायद मैं सपना देख रही थी। अचानक तेरह से लेकर सोलह वर्ष की सात-आठ लड़कियां धक्कम-धुक्का करती बिना किसी पूर्व सूचना और औपचारिकता के कमरे में घुस आई। न किसी ने मेरा नाम पूछा, न ही अपना नाम बताया बस मुझे देखते ही पूछने लगीं कि मैं किस अपराध के कारण यहां भेजी गई हूं? किस अपराध के कारण मैं यहां भेजी गई हूं? यही प्रश्न तो मैं अपने से बार-बार करती आई हूं। इतने अजनबियों के बीच अपने को घिरा पाकर मैं हड़बड़ा गई, उन्हें जवाब देने के लिए मैं फिर दुबारा से जल्दी-जल्दी सोचने लगी कि मैं यहां क्यों भेजी गई हूं? पर मरे दिमाग ने काम करना बंद कर दिया। मुझे अपना किया कोई भी अपराध याद नहीं आ रहा था। अतः मैंने हकलाते हुए कहा, ‘म.. म… मुझे नहीं मालूम।’
‘ऐसा कैसे हो सकता है कि तुम्हें अपना अपराध ही नहीं याद हो फकिंग इडियट (ब… मूर्ख) ?’ एक ने मुझे मुंह बिराते हुए कहा, ‘झूठ बोलती है हरामजादी।’
एक लंबी सी लड़की ने, मेरे चेहरे को अपने सख्त हाथों में उठाकर मेरी आंखों में आंखें डाल कर पूछा,
‘तू दोगली (बास्टर्ड) है?।’ शब्द का सही अर्थ समझे बिना मैं बोली,
‘नहीं’
‘डमडम (बेवकूफ) ।’ पीछे से किसी ने उंची आवाज में कहा,
‘पाकी है साली!’ (भारतीयों और पाकिस्तानियों के लिए इस्तेमाल किए जाने वाला गाली जैसा नकारात्मक शब्द)
मैं सिर झुका, दोनों हाथो में चेहरा थामें आंख बंद कर वहीं पलंग पर धम्म से बैठ गई। जीजस इतनी गंदी जबान। ऐसी गालियां। पार्क हाउस की नने तो इन्हें सूली पर चढ़ा देतीं। मेरा जीवन भले ही कितना अपमानजनक रहा हो पर किसी ने ऐसी भद्दी और बत्तमीजी की बातें मुझसे नहीं करी थीं। मेरा दिल बुरी तरह से धड़क रहा था। मुझे लग रहा था अब वे लड़कियां मुझे जरूर पीटेंगी। पीटर-पीटर। कहां गया पीटर? क्या इन्हीं भयंकर लड़कियों के साथ मुझे रहना होगा ? घबराहट से मेरे हाथ-पांव ठंडे होने लगे।
‘चल, छोड़ यार, यह इडियट तो बेकार समय की बरबादी है।’ एक ने धीरे से कहा।
‘सचमुच डर गई।’ किसी और ने कहा और धीरे-धीरे सब वहां से खिसक गई।
थोड़ी देर बाद जब मैंने आंखें खोली तो वहां अभी भी एक ललछौंहे सुंघराले बालों बाली गोरी पर हल्के भूरे तिलों से भरे चेहरेवाली बारह-तेरह वर्ष की मुझसे भी छोटे कद-काठी की दुबली-पतली लड़की खड़ी मुझे बिल्ली की तरह घूर रही थी।
‘क्या तुमने सचमुच कोई अपराध नहीं किया, पाकी ?’
“किया था एक बार ननरी के किचन में से पेस्ट्री चुराई थी। पर किसी ने मुझे चुराते हुए नहीं देखा। में पकड़ी नहीं गई।’ मैंने कहा।
‘छीः’ उसने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा, ‘यह भी कोई अपराध है, यह तो बड़ी बचकानी हरकत है?’ मेरी नादानी पर वह चहकी और बहस कर जल्दी-जल्दी बोली, ‘मैं तुम्हें कार चुराना सिखाउंगी। ईज़ी-पीज़ी (बेहद आसान)। कार चुराने का अपना मजा है। गाड़ी चुराओ, खूब तेज दौड़ाओ और फिर किसी पॉश गाड़ी से टक्कर मार, नौ दो ग्यारह हो जाओ। पकड़े जाओ तो फकिंग रिमॉन्ड कस्टडी (पुनर्वास सुधार-संरक्षण) और जुविनाइल केस (किशोर-अपराध)। समझी स्टुपिड पाकी।’ कहते हुए, जाने ही वाली थी कि मैंने उसका हाथ पकड़ कर कहा,
‘ तुमने मुझे पाकी क्यों कहा ? मैं पाकी नहीं हूं। मैं स्टेला रॉजर्स हूं। मेरा बाप गोरा था।
मैं गोरी हूं।’
वह हाथ छुड़ा कर भागते-भागते कहती गई,
‘रंग गोरा होने से क्या होता है पाकी, तेरी काली आंखे बोलती हैं, तू दोगली है। दोगली तो मैं भी हूं। मेरा बाप काला (अफ्रिकन) और मां गोरी (अंग्रेज) थी, दोनों सड़क दुर्घटना में मारे गए ! मुझसे दोस्ती करोगी ?’
मेरी आंखों के आगे से जैसे उसने कोई पर्दा हटा दिया, बिस्तर पर पड़े-पड़े मेरे दिमाग में रह-रह कर मेरे जन्म और जिंदगी से जुड़े तरह-तरह के दर्दनाक नस्ली सवाल उछल-उछल कर मेरे जेहन में आने लगे।
‘मैं कौन हूं?’…. ‘मैं स्टेला रॉजर्स हूं।’ ‘नहीं तुम रॉजर्स नहीं हो ?’ मेरे दिमाग के किसी कोने से उत्तर आया। ‘मैं रॉजर्स क्यों नहीं हूं मेरे बर्थ सर्टफिकेट से लेकर मेरे स्कूल सर्टिफिकेट पर मेरा नाम स्टेला रॉजर्स लिखा हुआ है।’ मेरा दिमाग चकरघिन्नी सा धूमता भन्ना रहा था पर साथ ही कई उलझे तार सुलझ भी रहे थे। ‘तुम्हारी आंखें नीली और रंग डैनियल रॉजर्स की तरह गोरा-चिट्टा नहीं है। ‘तो?’ ‘तो क्या?’ ‘डैनियल रॉजर्स तेरा बाप नहीं था, इसीलिए वह तुझे ठोकरें मारता था, उसे तेरे सूरतो-शक्ल से चिढ़ थी। तेरा गंदुभी रंग और काली आंखें उसके पौरुष को ललकारता था। तेरे और भाई बहन उसकी तरह चिट्टे गोरे-और नीली-भूरी आंखों वाले हैं।’ ‘तो?’ ‘तेरी मां ने अपनी सुविधा के लिए तुम सब भाई बहनों को ‘रॉजर्स सर नेम’ की छतरी पकड़ा दी।’ ‘तो?’ ‘तो क्या मूर्ख, तू उस छतरी में छेद थी।…..’ खुद से बातें करते-करते जाने कबतक में रोती-सिसकती रही मुझे याद नहीं, शायद रोते-रोते मैं सो गई।
जब मैं सुबह उठी, वहां कोई नही था, वे लड़कियां कौन थी? क्या मैं कोई भयानक सपना देख रही थी ? सोचते-सेचते नहा-धोकर जब मैं नीचे आई पीटर आफ़िस में बैठा कुछ काम कर रहा था। मैंने दरवाजे को हलके से खटखटाया,
‘अंदर आओ स्टेला ।।’ वही कल वाली विहंसती, आश्वस्त करती आवाज़।
‘गुड मॉर्निंग!’
‘हाय ! तुम बैंक जाने के लिए तैयार हो ? मार्टिन आता ही होगा।’
‘अभी पांच मिनट का समय है। मुझे तुमसे कुछ पूछना है?’ मेरी नर्वस आवाज में आवेग का कंपन था।
‘पूछो न, मैंने तो कल भी तुम्हारा इंतजार किया, पर शायद तुम थकी थी। शोहाब और सुब्रीना ने बताया तुम गहरी नींद सो रही हो।’ वही सहज, संतुलित और आश्वस्त करने वाला अंदाज कहीं कोई उपालंभ नहीं।
‘मेरा क्या अपराध है? मुझे अपराधियों के साथ क्यों रखा गया है? मैंने थरथराती आवाज़ में उससे पूछा।
‘तुम्हारा कोई अपराध नहीं है!’ उसके स्वर में सांत्वना थी ‘तुम अपराधियों के साथ नहीं, पुनर्वास केन्द्र में अपनी हम-उमर किशोरियों के साथ हो, जो तुम्हारी ही तरह परिस्थितियों की शिकार रही हैं।’
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