घर का शतदल भूल गए
धन दौलत की खातिर अपना ,सारा दल-बल भूल गए,
मैया छोड़ी ,बाबा छोड़े, घर का शत दल भूल गए।
कैरी, इमली, सोंधी रोटी, भूले माटी की खुशबू,
पैसे खनकाती दुनिया में, माँ की आँचल भूल गए।
टेढ़ी-मेढ़ी राह चले पर, पाँव जमी पर रहते थे,
दूर गगन में उड़ने वाले,अपनों का बल भूल गए।
चाचा, मामा, ताया, भौजी, हर नाता पहचाना था,
अंजानो के इस बस्ती में, सुख का हर पल भूल गए।
बहुत दिया इस दौलत ने पर, कीमत बहुत चुकाई है,
झूठे सुख की खातिर शिल्पी, घर का बादल भूल गए।
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-डॉ शिप्रा शिल्पी