शायद मैं वही किताब हूँ

गर ज़िन्दगी को
सफ़होँ में बाँट कर रखूँ
और खुद को किताब मान लूँ
तो शायद
मैं वही किताब हूँ
जिसके पन्ने तुमने कभी
धीरे से नहीं पलटे
बस बन्द किताब को
अँगुलियों के पोरों से खोल कर
अधूरा सा ज़िन्दा किया
और
अधूरा मार दिया
शायद
मैं वही किताब हूँ
बिना लव्ज़ों की अपनी आवाज़
आसमाँ पर अब्र की गठरी में
कहकशाँ के साथ
बिना लव्ज़ों की अपनी आवाज़ बाँध कर
भेजी हैं मैंने
तेज़ हवा की उंगलीओं से
खुल कर तुम्हारी छत पर
पहले चमकेगी
फिर बरसेगी
धूप तो है ही तुम्हारे पास
सोख लेना
धूप तो है ही ना तुम्हारे पास
सोख लेना

*****

-पूनम चंद्रा ‘मनु’

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