शिवोहम्
आंखों की नमी से गूंदती है
ज़िन्दगी का आटा
थपकियां दे देकर चकले की धार पर
गोल-गोल घूमती है
रिश्तों की आंच पर रोटी के साथ-साथ
सिंकती है खुद भी
उनके लिए
बड़के और छुटकी के लिए।
सीमित समय और साधन के बावजूद
तराशती है सब्जियों के फांक
मछली-सी छलमलाती हैं उंगलियां
जब पानी में धुलती हैं सब्जियां।
खट्टे-मीठे अनुभवों में लथपथाई
छन्न भर कहती है कड़ाही
फिर बेआवाज़ पकती है
जी-भर सुलगती है।
बिखर आई लट संवार
खुद को साधती है
बालों को समेटकर
सहस्त्रार पर बांधती है।
तब कोई धवल बाल
शीर्ष पर चमकता है
अधखिले चंद्र-सा,
गाती है गीत कोई
शुभकामना मंत्र-सा!
चू पड़ती है
पसीने की नमकीन धार
जटाओं के पार
मंद-मंद मुस्काती है
हंसकर पी जाती है
जीवन का गरल
जैसे गंगाजल!
राग-बैराग के साथ निपटाती है
पहली शिफ्ट
और दौड़ पड़ती है दफ़्तर की तरफ़
दूसरी शिफ्ट निभाने के लिए
विष कन्या से
शिव कन्या हो जाने के लिए!
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– अलका सिन्हा
