कुलबुलाहट

सोचती हूँ कि हिस्सा बन जाऊँ
इस अंजाने देश का
पर लोगों की अजनबी आँखें
सर्द चाबुक सी लगती हैं मेरी देह पर
फिर सोचती हूँ कि दरिया बन जाऊँ
बहती रहूँ यहाँ की पहाड़ी को
अपने भीतर समेटे हुए
पर अपने ही पत्थर रख देते हैं मेरे बहाव पर
बाँध देते हैं मुझे सीमाओं के विस्तार में
फिर सोचती हूँ कि हवा हो जाऊँ
और पहुँच जाऊँ अपनों के देश में
जहां सब कुछ बहता है मेरे भीतर
जहां पर गड़ी है गर्भनाल मेरी
मेरे होने के तमाम वजूद के साथ
पर अगले ही पल मैं बन जाती हूँ हवा
आजकल हवा बनना
मुझे रास आ गया है
एक दिन यूँ ही हवा बन जाऊँगी मैं
ढूँढते रह जायेंगे इस देश के लोग
कभी किताबों में कभी शब्दों में
कभी चौराहों पर किसी कियोस्क के पास
और फिर भूल जायेंगे मेरे होने को

*****

– अनीता वर्मा

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