वसन्त तो आ चुका है
पक रहा है मौसम
अमराइयाँ खदक रही हैं मीठी आँच पर
तितलियों पर मढ़ा हुआ सोना
चम-चम चमक रहा है
चंगुलों में लौट आयी हैं सुगंधियाँ;
पूरे उफान पर है-
नुचे हुए पंखों का मदनोत्सव…
नक्षत्र फिसल रहे हैं आसमानी काई पर,
खोटे सिक्के की तरह गिर रही हैं जन्मपत्रियाँ;
सूखकर झर चुके हैं सरसों के फूल,
भरोसे का हर कंधा उखड़ चुका है…
रोज़ी और भीख में अंतर कर पाना
सीख नहीं पा रही हैं दुविधाएँ,
बाज़ार में.
खोमचे लगा कर
बैठ गये हैं आंदोलन.
बढ़े हुए नाख़ूनों तक पर
कड़ी नज़र है मुस्कानों की,
ज़िद्दी चोटियाँ,
जिनको गाँठने के तरीक़े खजुराहो से पहले के हैं,
संदेहों की मुट्ठी में हैं;
समंदर में बहा दिये जाने लायक खम्भे-
आदर्श स्थिति तक किये जा चुके हैं खोखले,
कानों के विदीर्ण परदों से रिसतीं आर्त पुकारें
और आश्चर्य से फटकर बाहर आ गयीं पुतलियाँ
चुन-चुन कर-
लपेटी जा चुकी हैं गुलाबी अख़बारों में…
रेव पार्टियों में परोसी जा चुकी हैं शामें;
त्वचा पर कसे तारों को शिथिल कर गयी है-
फगुनहट,
चल पड़े हैं विशारद-
मर्द-नर्तकियों के घुंघरुओं को संगत देने,
अधीर लोमड़ियाँ कूद-कूद कर-
जागरित करने लगी हैं कुंडलिनी,
गूँगी हो गयी है भूख,
पेट में बैठे नाग ने
भीतर ही भीतर खींच ली है सारी प्राणवायु..
भ्रामक विज्ञापनों की तरह बीमारियों से लड़ रही है धूप…
अतिरिक्त सम्मान में-
झुके हुए पहिये-
जहाँ थे,
वहीं थम चुके हैं,
हवाओं ने उछाल दी हैं पीली ओढ़नियाँ,
जयकारों के बीच-
नज़ाकत से निकल रहा है ऋतुराज का जुलूस…
दूर टकटकी लगाए अबोध नज़रों को-
न जाने किस हादसे का इंतज़ार है,
वसंत तो आ चुका है…
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-राजीव श्रीवास्तव