गहराई के खोने का दुःख
नदी ही जान सकती है,
गहराई ही उसकी तिजोरी थी
जहाँ वह सहेजती थी—पुराण और इतिहास
रहती थी अपने जाये जलचरों संग
नदी बार-बार टटोलती है
अपने भीतर की बस्तियाँ
जो जमींदोज तो न हुई
पर, खुराक बन गई
आपत्तिजनक सभ्यताओं की
नदी अपने भीतर बार-बार झांककर
और मासूम गुमशुदाओं को न पाकर
सिसकती है, सुबगती है—
आखिर, कहाँ गए उसक रंग-बिरंगे बाशिंदे
और उनके सजीले घरौंदे
बेशक, उसकी उनींदी आँखें बेचैन हैं,
आइंदा, उसे नहीं नसीब होने वाला
सीप-घोंघे, शैवाल-कुंभी और प्रवाल का बिस्तरा,
तो क्या वह आखिरी साँस तक
ताकती रहेगी-टुकुर-टुकुर,
देखती रहेगी दिवास्वप्न
गए-बीते अपनों के वापस आने का
हाँ, जिंदा है उसकी उम्मीद अभी भी
तभी तो लगा रही है डुबकियाँ
गहराई नापने की प्रत्याशा में
और बार-बार होता जा रहा है उसका सिर
चुटहिल और लहूलुहान
उफ्फ! चिंता-चिता में भस्मीभूत होना ही
उसकी नियति है,
अपने दोनों ओर बाँहें फैलाए
सतत प्रयासरत है
कि कहीं उसकी शेष गहराई भी
तब्दील न हो जाए मानव बस्तियों में
-मनोज मोक्षेन्द्र