जैसे ही सीमा ने घर में क़दम रक्खा उसकी घबराई हुई माँ ने कहा, “मैं तो फ़िक्र के मारे मर ही गई थी बिटिया इतनी देर कर दी तूने पर ग़नीमत है तू सही सलामत घर आ गई। और सुन गौतम आ रहा है खाने पर। मेरा चचेरा भाई। याद है न, कभी-कभी बातों-बातों में, मैं अक़्सर उसका ज़िक्र करती हूँ। इतने सालों बाहर रहा है, मैं उसे सरप्राइज़ करना चाहती हूँ। उसे विश्वास ही न होगा यह जान कर कि मुझे आज भी यह स्मरण है, कि उसका जन्म दिन आज है। बीस साल हो गये हैं उससे मिले। कह रहा था बिज़नस के काम से दो दिन को कैनेडा आया है। बचपन में हम साथ-साथ खेले व पले थे। आज वह सब यादें ताज़ा हो आई हैं। तेरे पापा भी यहाँ होते तो कितना अच्छा होता। पर काम ही ऐसा है उनका, आधा समय तो घर से बाहर रहते हैं।“और फिर माँ को याद आया कि देर हो रही है, तो बोली, “मैं भी कहाँ की बातों में उलझ गई और तुझसे कहना चाह रही थी जल्दी कर और तुझे बातों में उलझा रही हूँ। साँस भी नहीं भरने दी तुझे। रानौ, पहले थोड़ा सा जूस पी ले फिर जल्दी से एक अच्छा सा बर्थडे केक ले आ। हाँ, हो सके तो बास्कनि-रौबिन से आइसक्रीम केक लेना। गौतम के लिये नई चीज़ होगी। गौतम आश्चर्यान्वित रह जायेगा सरप्राइज़ देखकर। बस जा और आ। हाँ, पर सावधानी से जाना।”
“माँ भी कितनी एक्साइटेड हो जाती हैं छोटी-छोटी बातों पर। इतनी सैंन्टिमैन्टल जो है,” सीमा ने मन ही मन सोचा। और जल्दी से जूस का एक घूँट पी, बोली, “माँ मैं ये गई और वो आई।” यह कह उसने तुरत कार बास्कनि-रौबिन की ओर दौड़ाई।
हाई स्कूल में पढ़ाती थी सीमा। और स्कूल के बाद कई टीमों की कोचिंग भी करती थी। शादी नहीं की थी, अत: घर जल्दी भागने की उसे कोई परवाह नहीं रहती थी। घर आते-आते उसे आसानी से छह बज जाते थे। इसे बेफ़िक्री कहो या डैडीकेशन। रास्ते में काफ़ी देर लग जाती थी। सभी के ऑफ़िस से लौटने का समय होने के कारण सड़कों पर इतनी भीड़ रहती थी, कि कारें रेंग-रेंग कर चलती थीं। और आज भी इसी कारण काफ़ी देर हो गई थी उसे।
बास्कनि-रौबिन पहुँच, सीमा ने जल्दी से चयन किया एक अच्छा सा केक, आइसक्रीम केक, और उस पर “हैपी बर्थड गौतम” लिखवा, पेमेन्ट देकर वह चलने ही वाली थी, कि किसी ने पीछे से, हलके से उसकी पीठ थपथपाई। सीमा ने हैरत से पीछे मुड़ कर देखा, यह सोच कि कैनाडा में कौन पीठ थपथपाने की ज़ुर्रत करेगा, यहाँ तो “ऐक्सक्यूज़ मी” कह कर ही ध्यान आकर्षित किया जाता है। देखा तो, एक अपरिचित, वयोवृद्ध महिला, सलवार-कमीज़ पहने, उसकी ओर याचित दृष्टि से देख रही है। शिथिल सा शरीर व घबराई निगाहें, जैसे किसी परेशानी में हो। सीमा ने सान्त्वना दिखाते हुए पूछा, “माँजी सब ठीक तो है?”
महिला ने उस प्रश्न का उत्तर बिना दिये ही, उसकी ओर एक काग़ज़ का टुकड़ा बढ़ाते हुए कहा, “बीबी ज़रा यह फोन नम्बर तो मिला दे।”
ज़ाहिर था उस वृद्धा के लिये टेलीफोन मिलाने के लिये दुकानदार से पूछना भी एक भारी समस्या थी, क्योंकि उसे इंग्लिश ही नहीं आती थी।
दुकानदार से अनुमति ले, सीमा ने जब टेलीफोन नम्बर मिलाया तो उसे किसी ने उठाया ही नहीं। केक को काउन्टर पर रख सीमा ने उस दु:खी वृद्धा को एक कुर्सी पर बिठाया और कहा, “माँजी अभी नंबर बिज़ी है, दो मिनट में दुबारा लगाऊँगी। कहाँ जाना है आपको, ज्य़ादा दूर न हो तो मैं छोड़ दूँगी।”
वह महिला बोली, “बेटी यह बात नहीं है, मुझे मेरे बेटे ने कैनाडा बुलाया था। चार महीने से यहाँ हूँ। सारा दिन घर का काम कर-करके मैं थक जाती हूँ, न कोई बोलने को, न बात सुनने को। मन बहुत घुट गया है। पर यह बात नहीं है। आज तो उसने हद ही कर दी। कहता है कमाई तो है नहीं तुम्हारी, उस पर काम भी ठीक से नहीं करती हो, जाओ कहीं और ठिकाना देखो। यह भी नहीं देखा कि रात होने को है, ठंड भी इतनी है। कहाँ जाऊँगी। मियाँ बीबी का झगड़ा, और ग़ुस्सा मुझ पर। अब मैं कहाँ जाऊँ। कपड़े लत्ते लेने का भी समय नहीं दिया। यह टेलीफोन नम्बर मेरे एक दूर के रिश्तेदार का है। शायद दो-चार दिन को सहारा दे दें। फिर आगे की देखूँगी। एक यही आसरा है, नहीं तो सड़क पर सोना होगा।”
यह सब सुना तो सीमा को तो जैसे बिच्छू काट गया हो। हद होती है ख़ुदग़रज़ी की। इतनी बेदर्दी, इतना असभ्य व्यवहार, वह भी अपनी बेसहारा बूढ़ी माँ के साथ, जिसने कभी दिन रात अपना ख़ून पसीना एक कर, बड़े लाड़ प्यार से पाल-पोस कर बड़ा किया होगा। माना कि वह पढ़ी लिखी नहीं थी। पर थी तो उसकी माँ। यह कैसा निर्मम, असभ्य व अत्याचारी व्यवहार। माँ केवल एक ज़रूरत पूरी करने का साधन बन गई है, एक नौकरानी से भी अधिक विवश। उसका भावुक मन चीत्कार कर रहा था। सीमा मन ही मन सोच रही थी, शायद उसके बेटे ने सोचा होगा कि माँ को जब कहीं और जगह नहीं मिलेगी तो वापस घर का दरवाज़ा खटखटा कर, घर में रहने देने के लिये गिड़गिड़ायेगी और घर का सारा काम पुन: बिना किसी शिकायत के करने लगेगी, जिसके लिये वह उसे कैनेडा लाया होगा। यह सब सोच-सोच कर सीमा का ख़ून खौल रहा था और पारा सातवें आसमान पर चढ़ रहा था। आँखों में भरे आँसुओं को पलकों में छिपा, जिन्हें बहा कर वह उस अभागिन की व्यथा नहीं बढ़ाना चाहती थी, बोली, “माँजी, चलिये एक बार फिर नंबर घुमा कर देखती हूँ, शायद अब मिल जाये, नहीं तो यदि घर का पता आपके पास हो तो मैं अपने घर जाते हुए आपको पहुँचा दूँगी।” भाग्य से इस बार टेलीफोन मिल गया। पर सीमा वहाँ से हिल न सकी, उसे आाश्वासन चाहिये था कि वह दुखिया सही सलामत किसी सेफ़ जगह पर पहुँच गई है। उसने कहा, “माँजी फोन रखने के पहले मुझे देना न भूलियेगा, जिससे मैं पता पूछ कर आप को सही सलामत ठीक जगह पर पहुँचा दूँगी।”
कुछ समय उपरान्त, जैसे ही सीमा ने उस दु:खी वृद्धा को उसके रिश्तेदारों के हाथ सौंपा, यह देख कि वह सुहृदय प्रकृति के लोग हैं, उसकी जान में जान आई, और तब याद आया कि माँ ने उसे जल्दी लौटने को कहा था। हड़बड़ा कर, उन लोगों से जल्दी से विदा लेकर, उसने तेजी से कार घर की ओर दौड़ाई। आठ बज चुके थे। उस गहन अवसाद के बावज़ूद, जो मन में कभी न मिटने के लिये घर कर चुका था, सीमा का मन अब काफ़ी हलका था। घर पहुँच कर, कार पार्क कर, उसने जब दबे पाँव घर में क़दम रक्खा, तो उसे माँ की घबराई आवाज़ सुनाई दी, “भगवान का लख लख शुकर है कि तू कुशल से है, और सही सलामत घर आ गई, मैं तो फ़िक्र के मारे पगला गई थी कि कितनी ग़लती की थी मैंने तुझे जल्दी करने को कह कर, कहीं तू किसी मुश्किल में तो नहीं फँस गई, (एक्सीडैन्ट का नाम वह मुँह पर न ला सकी) जल्दी में तू फोन ले जाना भी तो भूल गई थी, बस गरम-गरम खाना मैंने मेज़ पर लगाया ही है, बाद में बताना कि कैसे देर हुई, हाथ मुँह धो खाना खाने आजा। इस सबके के पहले अपने गौतम अंकल से तो मिल ले। तूने तो इसे देखा ही नहीं है।”
औपचारिकता के उपरान्त, माँ को प्यार भरा आलिंगन दे सीमा ने राहत की साँस ली और वह हाथ मुँह धोने गुसलघर की ओर मुड़ गई। माँ की ममता उसका हृदय द्रवित किये जा रही थी। मन से यह सोच, यह उलझन निकल ही न रही थी “कि लोग ऐसा कैसे कर सकते हैं?”
अपनी माँ की इस ख़ुशी की घड़ी को वह इन सब बातों को कह सुन, किसी भी तरह कम नहीं करना चाहती थी, अत:अपनी वेदना को मन में दबा “हैपी बर्थडे अंकल गौतम”, कह केक पर कैंडल सजा, सीमा जन्मदिन के आयोजन में जुट गई।
रात को, बिस्तर पर लेटे सीमा सोचती रही। न जाने कितने ऐसे अमानवीय लोग होंगे। एक भी परिवार ऐसा न कर सके इसके लिये मुझे ठोस व सक्रिय क़दम उठाने होंगे। उसका दिमाग़ इतनी योजनाओं से घिर गया कि इसके अतिरिक्त किसी अन्य सोच उसे छू न सकी। यह मान कर कि हर समस्या का कोई न कोई हल अवश्य होता है इसी विश्वास से सीमा संभव व असंभव की काँट-छाँट करने में जुट गई।
–परिमल प्रज्ञा प्रमिला भार्गव