अंबिका कई दिनों से सोच रही थी कि ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाती काँच की अलमारी में सजी मूल्यवान क्रोकरी पर जमी धूल की सतह वह पुनः साफ़ करे। वह इस विषय में वह अनेक बार सोचकर, हर बार इस काम को टाल देती। कुछ काम ऐसे होते हैं जिन्हें हम करना चाह कर भी बार-बार टालते रहते हैं।
वह सोचती कौन देखता है इन सब को? कभी-कभार आने वाले दोस्त भी अब दर्शन नहीं देते। सालों बीत गये हैं इन्हें प्रयोग में लाये। प्रति माह इन्हें निकाल कर साफ़ करना और वापिस अलमारी में सजा देना मात्र ही इनकी उपादेयता रह गई है। इस जीवन का क्या भरोसा? न जाने अंबरीश की तरह, मुझे भी ईश्वर बिना किसी अग्रिम सूचना व चेतावनी अपने अपने परिवार के साथ इतने सुदूर शहरों में बस गये हैं कि पोते-पोतियों को देखने को भी मन तरस जाता है। भगवान सदा सुखी रखे उन्हें। जुग जुग जिये मेरे लाल।
इस तरह अंबिका डूब जाती मधुर यादों के समुद्र में। अपने जीवन साथी के साथ व्यतीत कि ये उन दिनों की रौनक़ी शामों में, जब कभी विशेष अवसर पर शैम्पेन, शरबती वाईन अथवा अन्य किसी पेय के निमित्त इन गिलासों को अलमारी से बाहर निकाला जाता और बड़े गर्व से प्रयोग में लाया जाता। एक मधुर विडियो मन को विभोर कर देता। सुनहरी यादों से सजे सपने, आँखों के सम्मुख पैंगे भरने लगते। समय तिरोहति हो जाता, न जाने कहाँ।
मीठी यादों में अंबिका का मन डूब गया। घंटों के लिये। पर सहसा वह मधुर सपना टूट गया। स्वर्गीय पति की स्मृति से नयन गीले हो गये। अश्रु आँखों समा नहीं पा रहे थे। सूनी, सहमी, उदास शाम, एकांत के सन्नाटे को असहनीय बना रही थी। डबडबाये नेत्रों व शिथिल शरीर को समेटे, पग, अंबिका को शयन कक्ष में घसीट लाये। बिना खाये-पिये वह आँख मूँद कर लेट गई, नींद की गोद में राहत पाने को।
यकायक आधी रात अंबिका की नींद टूट गई। शाम की याद हृदय में कौंध गई। जैसे भगवान सहायक बन सुझाव भेज रहा हो। मन ने फ़रमाया, क्यों न तुम घर की उन सब वस्तुओं को अपने जीते जी बाँट दो, जिन्हें तुम यदाकदा भी प्रयोग में नहीं लाती।
उसने सोचा, गराज सेल? सब ही तो करते हैं, यहाँ कैनेडा में। पर मैं? पैंतीस साल हो गये यहाँ रहते, अभी तक तो कभी की नहीं, अब इस बुढ़ापे में, और वह भी अकेले। न बाबा ना। यह मेरे बूते का क़तई नहीं। और आज के ज़माने में यह सेफ़ भी नहीं। क्यों न चुपचाप अपने ड्राइवे के किनारे, जहाँ गारबेज पिकअप के लिये सामान रखती हूँ, हर रोज़ दस बारह क्रिस्टल रख कर देखूँ। कोई न कोई तो अवश्य ले जायेगा इन्हें। इतने महँगे व सुन्दर हैं यह। कोई तो होगा पारखी और ज़रूरतमंद। शनैः शनैः यह विचार अंबिका के मन को भा गया। और उसने कुछ ही घंटों में इसे कार्यान्वित करने की ठान ली।
सुबह सबेरे जल्दी उठ कर अंबिका ने एक दर्जन गिलासों का चयन किया, और शाम ढलते ही अपने ड्राइवे के दाहिने किनारे पर उन्हें सलीक़े से सजा दिया, इस नोटिस के साथ “फ़ील फ़्री टु टेक”।
दूसरे दिन सुबह, घर के दूसरी मंज़िल की खिड़की से, ऊषा की पहली किरण के साथ, जब अंबिका ने बाहर झाँक कर देखा तो वहाँ कुछ भी शेष न था।
यह सोच, न जाने कितने लोग दिवंगत अंबरीश की आत्मा को दुआ दे रहे होंगे, अंबिका का मन हलका हो गया, जैसे कोई भारी बोझ सिर से उतर गया हो।
–परिमल प्रज्ञा प्रमिला भार्गव