1. चिड़िया का होना ज़रूरी है!

पेड़ पर फुदकती है चिड़िया

पत्ते हिलते, मुस्कुराते हैं,

चिड़िया पत्तों में भरती है चमक,

डाली कुछ लचक कर समा लेती है

चिड़िया की फुदकन अपनी शिराओं में,

और हरहरा उठता है पेड़,

पेड़ खड़े हैं सदियों से,

चिड़िया है क्षणिक

पर चिड़िया का होना ज़रूरी है।।

चिड़िया के गान पर गा उठता है पूरा जंगल,

चिड़िया खींच लाती है सूरज की किरणों को,

तान देती है पेड़ों के सिरों पर 

धँस जाती है उन घनी झाड़ियों में 

जो वंचित है सूरज की ममता से,

मिट्टी में खोद, 

बनाती उजाले की क्यारी,

बोती है उनमें जीवन के कुहुकते स्वर,

परों से सहला देती है दबी, कुचली घास को,

जिनको नहीं अपने महत्त्व का भान

चिड़िया उन सब तक लाती है जीवन का गान!

जंगल है सदियों से

चिड़िया है क्षणिक 

पर चिड़िया का होना ज़रूरी है॥

ठीक वैसे ही,

जैसे,

धान रोपती औरतों का फूटता गान

ज़रूरी है धान में मिठास बनाए रखने के लिए,

मज़दूर के सिर तसले का संतुलन

ज़रूरी है चूल्हे की आग बचाए रखने के लिए,

जैसे बच्चे की इच्छा और ज़िद्द

ज़रूरी है बचपन बचाए रखने के लिए, 

जैसे किशोर आँखों में उपजते सपने

ज़रूरी हैं दुनिया में सरलता बचाए रखने के लिए,   

जैसे कट कर भी कोंपलों में जी उठने वाले पेड़

ज़रूरी हैं हरियाली बचाए रखने के लिए,

जैसे हार कर भी हार न मानना

ज़रूरी है मनुष्यता बचाए रखने के लिए……!!

सदियों से चल रही है दुनिया

क्षणिक है आदमी,

पर दुनिया के लिए

ज़रूरी है आदमी का बचे रहना!

ठीक वैसे ही

सदियों से खड़े हैं जंगल, 

और क्षणिक है चिडिया

पर जंगल के लिए 

ज़रूरी है चिडिया का बचे रहना॥

***

2. बनाये अपने घर

भर गया उनकी भव्यता के भाव से

फिर बम लगा तोड़ा पहाड़ 

बनाये अपने घर।

उसने जंगल को निहारा,

भर गया उनके रहस्य-दर्शन भाव से

फिर काटा पेड़ों को 

बनाये अपने घर।

उसने धरती को कहा ’माँ’

भर कर आत्मीय भाव से चूम लीं फ़सलें

फिर डाली बजरी, गर्म तारकोल 

बनाये अपने घर।

उसने परिवार को माना धुरी जीवन की,

संबंधों पर लिखे महाकाव्य

फिर कानूनी सम्मन भिजवाये भाइयों को

बना लिया अपना घर।

डर लगता है उसके प्रेम से 

किसको गायेगा, अपनायेगा अगली बार

करेगा किस-किस के जीवन और घर पर प्रहार? 

***

3. श्रवण कुमार

पिता बिना,

अकेले घर कैसे रहेगी माँ?

चिंतित बच्चे, 

शुरूआत में,

बात होती हर सप्ताह,

फिर उसके ललक कर फोन करने पर

व्यस्त बच्चे, झींकते!

माँ ने फोन की ओर बढ़ती अँगुलियों को

सिकोड़, गाड़ना सीख लिया 

हथेली में!

फिर महीने पर होने लगी 

वृद्धाश्रम को चैक भेज, फोन पर बताते 

बड़ी तसल्ली, अधिकार स्वर में पूछते,

’और सब ठीक माँ?’ 

इस वाक्य में

गुंजाइश नहीं होती माँ के लिए, 

अपनी बात की 

छोटी भी सेंध लगाने की!

यह वाक्य प्रारंभ भी था और अंत भी,

प्रश्न भी था और उत्तर भी,

कर्तव्य भी था और अधिकार भी!

’हाँ-हाँ, ठीक, मुझे क्या हुआ है!”

धीमे स्वर में व्यर्थ दोहराती,

जैसे स्वयं को बताती माँ

देर तक अकेलेपन की 

सच्चाई से मुँह चुराती,

वृद्धाश्रम के आराम को सराहती,

संगिनों से बच्चों की व्यस्तता,

ऊँचे पद की कहानी को 

अथ से इति तक दोहराती,

रह रही है 

बहुत सुख से!

बच्चे बहुत संतुष्ट हैं

माँ को कोई कष्ट नहीं! 

कितना ध्यान रखते हैं वे!!

***

4. गाँठ में बाँध लाई थोड़ी सी कविता

आँचल की गाँठ में

हल्दी-सुहाग में 

साथ-साथ बाँध लायी अम्माँ की कविता!

चावल-अनाज में

खील की बरसात से

थोड़ी सी चुरा लायी जीवन की सविता!

मढ़िया की भीत पे

सगुन थाप प्रीत से 

सीने से लगाय लाई थॊड़ी सी कविता।

मैया ने अच्छर दिये

बापू ने भाषा दी

भैया के जोश से उठान लाई कविता।

सासू जो बोलेगी

ताने यदि गूँजेगे,

तकिया बनाय आँसू पौंछेगी कविता!

रौब कोई झाड़ेगा

शेर सा दहाड़ेगा

खरगोश सी सीने में दुबकेगी कविता।

पेट भले भूखा हो

जीवन चाहे रूखा हो

जीवन को जीवन बनाय देगी कविता।

ए मैया, उपकार किया

मुझ को पढ़ाय दिया

मुश्किल की घड़ियों में साथ देगी कविता। 

आँसू में गीत पलें,

लोरी में नींद जले,

जीवन को नदिया बनाय देगी कविता।

***

5. भारतीयता हमारी यू एस बी

भारतीय होने का असली अर्थ जाना

जब निकल आए भारत से,

वहाँ की हवा, मिट्टी से,

छोटे-छोटे घरों के अपार, अन्तहीन दुखों और अभावों से।

भारत में रहते हम

प्राय: रहते हैं भारत के विरुद्ध,

कमियाँ गिनते,

व्यवस्था को कोसते,

लोगों को असभ्य कहते,

अपने को सभ्य घोषित करने की चेष्टा में,

हम रहते हैं देश-बाहर जाने के किसी स्वप्न में!

आते ही बाहर उन हदों से,

हम करते हैं याद भारत की,

पहचान भारतीय बताते हैं,

हर पर्व उत्साह से मनाते हैं,

सुनते हैं भारतीय संगीत, भारतीय खाने की तारीफ़ करते नहीं थकते,

भारत हमारी नई सुविधाओं के बीच 

कॉफ़ी टेबल पर किसी कलाकृति सा सजा

बताता ही रहता है हर आने वाले को 

कि हम भारतीय हैं॥

***

6. अद्भुत कविता लिखने की प्रतीक्षा

एक अद्भुत कविता लिखने की प्रतीक्षा

जी रही है मेरे भीतर सदियों से,

हर जन के दुख-सुख अनुभव से

उफनता है मन

कविता सीने में कुलबुलाती है

पर जन्म नहीं ले पाती!

तुम्हारा दुख पसीने से तरबतर कर देता है मेरा माथा,

पर ओंठो पर मुस्कान ला देती है 

तुम्हारी आँखों में सितारों की दुधमुँही चमक,

तुम पर उमड़ी ममता

स्व से सर्व के झूले पर आगे बढ़ती,

भावों की बारिश होती है आँखों से

विचार घुमड़ते हैं धुँये से सीने में

पर वह अद्वितीय कविता 

जो आकाश ओढ़ कर पैदा होती है,

हवाओं को गाती,

धरती फोड़ कर जन्म लेती है,

…हो नहीं पाती…!!

मैं बेचैनी में कलम छोड़

टहलती हूँ, पुकारती हूँ

शब्द शिशुओं को,

आओ!

आओ!

अक्षर हो तुम,

इस बार मेरी कलम की कोख से 

कागज़ पर उतरो!

आओ

कि भर जाये आनंद -रस से मेरा वक्ष

खाली हो जाए मेरी कामना की कोख!

मैं निहारूँ तुम्हारा सौन्दर्य 

और साथ पाकर

पवित्र हो जाऊँ….!

तुम उतरे हो अनेक बार

अनेक साधनाओं का परिणाम बन..

ऋषियों की ऋचाओं से 

गीतों की पुकार से

महाकाव्यों के गान से..!!

देखो, मेरी अशेष संघर्ष-साधना को भी देखो

मुझे भी वरदान दो..!

आओ, मेरे युग की गहरी थकान को

अपनी तेजस्विता दो,

मेरे युग के क्लांत हृदय को

सूर्य का ओज दो!

मेरे युग की स्वार्थ ठस्स बुद्धि में

मनुष्यता की ज्योति भर दो…!

कुलबुलाती है भावना,

बुद्धि धुँआ-धुँआ हो रही है

हृदय ऐंठता है पीड़ा से..

पर ठूँठ सी पड़ी है मेरी कलम…!

प्रतीक्षारत हूँ मैं..

एक युग से 

एक अद्वितीय कविता की!

***

7. तुम स्याही, मैं कलम 

तुम स्याही बन कर 

मन की कलम की नोंक पर 

टिके हो

मैं भीगी सी

इंतज़ार में हूँ उस अभिव्यक्ति की…

जब हम दोनों 

साथ-साथ उतरेंगे 

कागज़ पर!

मेरे अस्तित्व की किताब के पन्ने

तुम्हारी आवाज़ की हवा से

फ़ड़फ़ड़ाने लगते हैं,

मानो उन्हें पंख मिल गए हों!

तुम्हारा ख़्याल तराशने लगता है

मन के भावों को 

और शब्द हीरक कनी बन जाते हैं,

उतर आते हैं नई चमक लिए

काग़ज़ों पर,

पर 

***

8. तुम सी न हो पाई माँ

मैं,
उलटती-पलटती रही इस अनुभूति को
बहुत देर,
दिल और दिमाग के बीच की रेखा पर
तौलती रही इसे,
शब्दों को पकाती रही सम्वेदना के भगौने में,
तब सोचा
कि स्वीकार किये बिना अब कोई चारा नहीं है,
कि माँ,
मैं तुम सी न हो पाई।
मैं तुम सी न हो पाई!!

तुम,
अपनी नींद,
टुकड़ा-टुकड़ा हमारी किताबों में रख,
भोर की किरणों को
परीक्षा पत्र सा बांचती आई
मैं, न कर पाई!

तुम,
हमारे स्वाद,
थालियों में सजा,
अपनी पसंद सिकोड़ती आई
मैं, न कर पाई!

तुम्हारी,
प्रार्थनाओं की फैली चूनर में
केवल हमारे सुखों की आस थी
तुम कहीं नहीं थीं उसमें!
मैं,
न कर पाई!

तुमने बोलना सिखाया हमें
और खुद चुप होती चली गई!
तुमने कभी कहा नहीं परेशानियों में भी
कि “अब तुम से होता नहीं”
और तुम्हारी हिम्मत
मुक्त करती रही हमें अपराध बोध से!
तुमने कभी यह भी कहा नहीं कि
“यह मैं ही करूँगी”
और चुपचाप हमारे भीतर
कर्म की अनेक सँभावनायें बो दीं!

तुम्हारा मौन, तुम्हारी शांति है और तुम्हारी ढाल भी!
तुम्हारा श्रम, तुम्हारी काँति है और तुम्हारा हथियार भी।
तुम्हारा प्रेम, हमारे लिये हवा है, पानी है,
हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।
तुम अपनी इच्छाओं को,
खाद बना हमें फलने-फूलने देती रही
हमें सोचने की न ज़रूरत हुई, न फुर्सत!

आज,
जब तुम्हारी भूमिका में हूँ मैं
और उलट-पलट कर देखती हूँ तुम्हारा जीवन,
तो जानती हूँ
तुम्हारी तरह मौन, अपने को देते चले जाने की साधना
नहीं है मुझ में..!!
मेरा मन देकर भी बचा लेना चाहता है,
अपना निजी एक कोना!

अपने को पूरा दे देना
संस्कृति नहीं है अब हमारी,
अब हमारी निजी अस्मितायें हैं
जो तौलती हैं हर संबंध से मिलने और देने को,
और अक्सर पैदा करती हैं कटुताओं का उलझाव
जो तुममें नहीं था।
तुम साफ नीला आकाश थी
हमें ढ़के हुये,
एक कोमल घास वाली धरती,
जिस पर खॆलते थे हम निश्चिन्त
तुम्हारे आशीर्वादी सूरज की गुनगुनी धूप से ढँके!!…

माँ, सच,
मैं होकर भी माँ,
पूरी तरह
आकाश, घास, सूरज न हो पायी!
मैं,
तुम सी न हो पायी,
तुम सी ना हो पायी

*****

-शैलजा सक्सेना

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