मेरा गाँव, मेरी परछाई
(ग्रामीण जीवन)
यह था वसन्त ऋतु का आगमन
प्रकृति का स्वागतम, जीवन का स्पंदन l
मुझे भी था इसका इंतज़ार
ताकि कर सकूँ रगों में नयी ऊर्जा का संचार
और लिख सकूँ थके जीवन के पन्नों पर
अनुभव के भूले-बिसरे दो-चार छंद,
लेखनी चंचल हुई जीवन्त हो गए शब्द l
वह कौन थी जो बैठती थी
पास की ही बेंच पर!
शिक्षकों की आँख बचाकर देख लेता बार-बार
उसी की तस्वीर बनाते बन गया एक चित्रकार
प्रेम का रंग भर दिया, पर हो न पाया कभी दीदार
कोसता मैं रह गया – कैसा मिला था संस्कार !
मैं सोचता ही रह गया, वह किसी की हो गयी
एक कवि की कल्पना में बन्द होकर रह गयी l
कौन थी वह कामिनी, मधुर स्वर की स्वामिनी
बन्द घर की कोकिला, परम्परा की बन्दिनी
यदा-कदा मैं देख लेता जब खिड़की से जाती रोशनी
शिक्षा विहीन वह नन्दिनी बन गयी अभागिनी
माता-पिता को कह न पायी अन्तर्मन की छुपी कहानी
मौन रहकर बन गयी अपने पिया की संगिनी l
मैं देखता ही रह गया वह दूर देश चली गयी
एक कवि की चेतना आहत होकर रह गयी l
वह कौन थी सरिता के तट पर
इठलाती, बलखाती, अल्हड़ सी खेलती
कभी मछली सी तैरती, कभी अंगिका समेटती
यौवन की आभा को प्रकृति में बिखेरती l
मैं सोचता ही रह गया, वह किसी की हो गयी
एक कवि की कल्पना में बन्द होकर रह गयी l
कहाँ हैं वो गाँव-कस्बे जिसमें पली थी जिन्दगी
कहाँ हैं वे संगी-साथी जो खेलते थे रोज कबड्डी?
कैसे हैं वो बाग़ बगीचे, आम की वो डालियाँ
कैसी है वह सुन्दरी जो बेचती थी आमरस !
यह दृश्य अनोखा हो गया
एक कवि की कल्पना में बन्द होकर रह गया l
कैमरा होता अगर तो कैद करता उन क्षणों को
बार-बार मैं देख पाता ऊर्जित होते क्लांत मन को,
सात समंदर पार की अपनी हैं परेशानियाँ
कल्पना है वह संगिनी जो देती है सांत्वना !
-कौशल किशोर श्रीवास्तव