बोल रहे हैं वृक्ष आज
(जलवायु परिवर्तन)
वृक्ष बोलते वृक्षों से कहते एक कहानी
हरे-भरे उद्यानों में, विस्तृत वन्य प्रदेशों में
उनकी वाणी फैल रही है दुनिया के आँचल में
मानव जाति नहीं समझती अर्थपूर्ण संकेतों को l
सूखे पत्ते, सूखी डालें, सूखे पड़ गए छाले
हरियाली के ऊपर दिखते धब्बे काले-काले
साँसों की तकलीफ उन्हें हैं, वायु में है दूषण
जीवन काल संक्षिप्त हुआ, जलवायु परिवर्तन l
उष्ण तरंगों की ज्वाला में झुलसे वन्य प्रदेश
पशु-पक्षी और जीव अनेकों भोग रहें हैं क्लेश
विचलित मानव खोज रहा है एक नया परिवेश
सागर की लहरें भी क्रुद्ध, कैसा है यह युग विशेष?
बर्फीली चट्टानों से निकले पृथ्वी माता के आँसू
कौन उन्हें सँभालेगा जब विज्ञान नहीं है क़ाबिल?
महाप्रलय की कल्पित लीला, मूर्त रूप में आयेगी
देख नहीं पायेगा मानव, घड़ी विनाश की होगी l
आज सोचता हूँ मैं क्षण भर, दुविधा की गहराई है
भौतिक विकास, सम्यक जीवन, दोनों के बीच लड़ाई है
कैसे करें संतुलन इनमें यह एक असाध्य पहेली है
भोग-विलास की काली छाया, मानवता पर हावी है l
कल ही मैंने देखा था चिन्तन की अद्भुत वेला में
पृथ्वी लोक मैं छोड़ चला, ब्रह्माण्ड भ्रमण की यात्रा पर
मंगल ग्रह पर जा उतरा जैसे हो मेरा परिचित परिवेश
स्वागत स्वागत का गुंजन सुनकर, मैं हो गया सचेत l
क्या यह था एक ‘दिवास्वप्न’ या ‘मन का पागलपन’
या यह था ‘कल्पित विज्ञान’ का एक समकालीन विवेचन?
बुद्धि-श्रेष्ठ, उद्यम-प्रवीण, मानव है भाग्य विधाता
क्रमिक विकास की सीढ़ी पर संकल्प सफल हो न्यारा l
बोल रहे हैं वृक्ष जगत में, अनहोनी है घटना
सुनना होगा आज हमें, लानी होगी चेतना !
-कौशल किशोर श्रीवास्तव