दो तटों की सीमा में बद्ध
बहती पूर्ण स्वतंत्र तरंगिणी
नहीं बाँधती स्वयं को किसी तट से
निरंतर गतिमान कल्लोलिनी

आ जाता है यदि कोई अवरोध तो
बदल लेती है मार्ग सहजता से
सतत प्रवाह चलता रहता है
नहीं रुकती किसी विषमता से

नहीं करती अवसाद कभी
क्या पीछे छोड़ कर आती है
नहीं मुड़ती विपरीत दिशा में
आगे ही बढ़ती जाती है

है ज्ञान उसे निज रूप का
गतिशीलता है स्वरूप मेरा
बंध गई यदि किसी किनारे से तो
हो जाएगा देहांत मेरा

गति में ही तो उसका जीवन है
और, सदा जीवन उसका गतिमान
जीवन और गति पर्याय ही तो हैं
दोनों के अर्थ हैं एक समान

देखें तो यह जीवन सरिता भी
दो तटों के मध्य ही बहती है
एक तट पर आनन्द है इसके
दूसरे तट पर वेदना रहती है

रहती निरंतर गतिमान यह भी
नहीं रुकती किसी भी तट पर
कभी मंद और कभी तीव्र यह
बस प्रवाह बदलती रहती है

यह मन है, जो जीवन प्रवाह में
प्रतिरोध का कारण बनता है
नहीं स्वीकारता साथ बहने को
और तटों में अटक कर रहता है

जकड़ लेता है स्वयं को
सुख-दुःख की बेड़ियों के अंदर
कर लेता है एक भंवर का निर्माण
और डूबता जाता है उसके अंदर

कभी अवसाद भूतकाल का
और कभी भविष्य का भय
भूत-भविष्य के इस भंवर में
वर्तमान का होता क्षय

नहीं बाँधना जीवन प्रवाह को
मन निर्मित बाँधो के बीच
होकर बस साक्षी सुख-दुःख के
बहते रहना इन तटों के बीच

बहने दो जीवन सरिता को
एक स्वतंत्र तरंगिणी स्वरूप में
हो सके सुगम यात्रा इसके विलय की
परम अनंत अथाह सागर में

*****

-अदिति अरोरा

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