तुम हंसती बहुत हो
तुम हंसती बहुत हो,
क्या अपनी उदासी को
इसके पीछे छिपाती हो?
ये जो गहरा काजल
तुमने आँखों में है लगाया
कितने ही आंसुओं को
इनमें है छिपाया?
खुद को मशरूफ रखने
का नाटक, जो
तुम सुबह से शाम
तक करती हो,
दिल पर लगे ज़ख़्मों को
तुम क्या बख़ूबी ढकती हों
न खुल जाए दिल की बात
किसी के सामने
इसीलिए तुमने बातूनी
होने का जामा
खुद को पहनाया है
क्यों बेवजह कोशिश
करती हो,
सब छिपाने की,
तुम्हारी साँसों की
सिसकियों ने ही
ये, दर्द दुनिया को
बतलाया है।
भीड़ में छोड़ आई हो,
जिसे तुम, वो हमसफ़र नहीं
हमसाया है,
आईने के सामने भी क्या?
कभी चेहरा, छुप पाया है?
तुम्हारी मुस्कुराहट भी
एक अजब पहेली है
जिस बात को तुम
सबसे छुपाती हो
इसी ने वो बात
सबके आगे खोली है
न जाने ऐसा क्यों
लग रहा है
तुम्हारी ज़िंदगी बहुत
उधड़ी उधड़ी सी है
जिसे हँसी की
रफ़ू से तुम छुपाती हो…
तुम हंसती बहुत हो,
क्या अपनी उदासी को
इसके पीछे छिपाती हो?
तुम हंसती बहुत हो,
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-ऋतु शर्मा