लाला रूख़
लाला रूख़ में बैठ भारत से
जब विदा हो गये तुम
न समझना कभी कि
एक दूसरे से जुदा हो गये हम
एक ही माँ की दो संतानें हैं हम
एक ही देश की दो पहचान है हम,
एक की जन्मभूमि भारत रही
दूसरे की कर्मभूमि सूरीनाम बनी
पूरब से पश्चिम में बंट गए हम
पर समुदर के फ़ासलों को
फिर भी लांघ गये हम।
लाला रूख़ मे बैठ
भारत से जब विदा हो गए तुम
न समझना कभी
एक-दूसरे से
जुदा हो गए हम।
पराई मिट्टी को
माथे लगा, वहाँ नया भारत
बसाते, चले गए तुम
बंजर ज़मीन को
सींच लहूँ से अपने,
गुलज़ार बनाते गए तुम
ज़ुल्मों से भरे दिनों
पर, प्यार की मरहम
लगाते चले गए तुम।
ये ना समझना कभी
एक दूसरे से
जुदा हो गए हम।
भारत की होली त्यौहारों
के रंगों से,
परदेस को प्रेम के, रंग मे
रगंते चले गए तुम
दिलों में फैले भेदभाव
के अंधेरों को मिटा ,
दिवाली के दीयों
से रौशन करते गए तुम।
भारत से ले गए साथ तुम
परम्परा और संस्कारों के बीज़
सूरीनाम की धरती में उसे सींच,
जड़े भारतीयता की
फैलाते गए तुम
संस्कृति के प्रहरी
बन भारत का मान
बढ़ाते चले गये तुम॥
लाला रूख़ में बैठ भारत
जब विदा हुए तुम
ये ना समझना की
हम एक-दूसरे से
जुदा हो गए हम।
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-ऋतु शर्मा