खोया शहर

सालो बाद अपने शहर आई हूँ,
बहुत से सपने और उम्मीदें
समेट मन में भर कर लाई हूँ
ढूँढ रही हूँ वो आँगन
जहाँ खेलते बीता मेरा बचपन

खोज रही हूँ माँ की
आरती की घंटी की आवाज़
जो सुबह शाम बजा करती थी
बाबूजी का अख़बार जिसमें
दुनिया भर की ख़बरें और
बाल कहानी भी हुआ करती थीं

दादी का पुराना पीढ़ा
जिसकी बान ढीली होने पर
बड़े भाई से कसवाती थी
पड़ोस की पगली भानी
की बनाई कपड़े की गुड़िया
जिसका मैं माँ कीं साड़ी
पहन रोज ब्याह रचाती थी

पड़ोस के रईस मामा
जिसे माँ बौड़म बुलाती थी
हर ईद पर उनके घर से
हम बच्चों की ईदी में
प्यार की चाशनी में भीगी
मीठी सेवियाँ आती थी

गली की हर बहन बेटियाँ
सबकी साझा हुआ करती थी
गली के मर्द इनकी इज़्ज़त
बचाने के मर मिटने को
तैयार हुआ करते हैं

कहाँ गया वो अपनापन
वह प्यार वह रिश्ते जो
ख़ून रिश्तों से बढ़कर
हुआ करते थे

अब सब बदल गया है
आँगन फ़्लेट में बदल गया
बाबूजी की कुर्सी
घर के स्टोर रूम में
रुआँसी सी पड़ी है

पगली भानी की गुड़िया
की जगह अब जीती जागती
गुड़ियाओं ने ले ली है

रिश्तों के नाम पर अब
फ़ेसबुक लिस्ट बची है
साँझी संस्कृति अब
लुप्त हो चली है

ये शहर कंक्रीट का बन गया है
लोगों के दिल भी पत्थर हो गए हैं
आपको मिले कहीं, मेरा वो खोया शहर
बताना मुझे हजूर, मैं सात समुंदर
पार उससे मिलने आऊँगी ज़रूर।

-ऋतु शर्मा

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