जो सुन्दर है, विविध है

कालातीत बृहत् ब्रह्म में;
अनहत उसके अनवरत क्रम में;
सब स्थिति, सब गति में;
जड़-चेतन, समस्त प्रकृति में,
जो भी है, सब विविध है।

अंतरिक्ष में जो कहकशां,[1]
सबकी अनोखी दास्ताँ।
चाँद-तारे उनके अलग;
उनकी धरती, उनका आसमां;
जो भी है, सब विविध है।

अपनी ही आकाश-गंगा के,
सब तारे, सब ग्रह, नक्षत्र;
सबकी परिधि, गति अलग;
सबके अपने साल-सत्र;
जो भी है, सब विविध है।

पर्वत कहीं ऊँचे खड़े;
कहीं पड़े समतल मैदान;
हर-भरे जंगल धरा पर;
कहीं वृहत मरुभूमि वीरान;
जो भी है, सब विविध है।

मौसमों के मिज़ाज़ कितने;
कभी पतझड़, कभी बहार;
कभी भीषण पड़े गर्मी;
कभी बारिशों की फुहार;
जो भी है, सब विविध है।

ताप-वायु का प्रवाह-प्रबंध;
ये रूप-गुण, सब रस-गंध;
पेड़-पौधे, फल-फूल, फसलें;
जीव-जंतुओं की सब नस्लें;
जो भी है, सब विविध है।

कई किस्मों के जो नर-नारी;
कुदरत की यूँ, सजी फुलवारी;
बोल-चाल, खान-पान, लिबास;
कई मत-विचार,आस्था-विश्वास;
जो भी है, सब विविध है।

मगर, कुदरत के सर्वथा विपरीत;
एकरूपता से मानव को प्रीति।
अपने जैसा रूप-रंग, व्यवहार,
चाहिए उसको समस्त संसार;
यह तो प्रकृति में निषिद्ध है।

एकरूपता में है मानव-मन की सीमा छिपी;
हर कृति है उसकी, बस मूल की प्रतिलिपि।
प्रकृति का मगर, अद्भुत्त सरल सिद्धांत;
हर प्रजाति में, हर कोई अलग दृष्टान्त।
जो अप्रतिम है, प्रसिद्ध है;
जो सुन्दर है, विविध है।

*****

-अवधेश प्रसाद

[1] अप्राकृतिक

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