ज्वार

आज तुमने मुझे फिर पुकारा
आज तुमने मुझे फिर पुकारा
और मेरे अंतर की तह को
फिर से हिला दिया
ज्वार भाटे की तरह
मेरे छिपे हुए अवसाद
मेरी सोई हुई अनुभूतियाँ
यूँ उभर आई जैसे
खुले आकाश से झांकते हुए
पुरे मयंक ने धरती पर उमड़ते
सागर में ज्वार ला दिया हो,
यकायक ज्वार लाने का
मेरे छिपे हुए अवसाद को
छूने का अधिकार तुम्हें
कहाँ से और कैसे मिला?
मुझे इसका आभास नहीं
मुझे इसका कोई अंदाज नहीं
मैं तो इस सच को जानती हूँ
कि तुम मेरे अंतर के कोनों को
छू कर फिर चुप हो गए,
यह कैसी उलझन है ?
ये कैसे आसार हैं ?
ये आसार मेरे अंतर की
तह को छू लेते हैं,
और तुम ?
तुम उस आसमान के मयंक की
तरह खाली मुस्कराते रहते हो।

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-स्नेह सिंघवी

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