अकेली

तुम खुद ही
अपनी दुनिया से
मेरी दुनिया में आए थे
मैंने तुम्हें स्वीकारा था
अन्तरमन से चाहा था
तुम्हारे दिखाये सपनों के
इन्द्रधनुषी झूले से झूली थी
तुमने दिखाई थी बहारें
लिपट गयी थी गुलाबों से मैं
तुम्हारी उंगली पकड़
नन्ही बच्ची-सी चलने लगी थी
अपने मन के अंदर
तुम्हारी ही बनाई सड़क पर
चलने लगी थी मैं
तुम बन गए थे
मेरी पूरी दुनिया
आसमान के चाँद ने भी
ले ली थी शक्ल तुम्हारी
पर
तुम अपने छोर
अपनी दुनिया के खूँटों पर
अटका कर आए थे
उस दुनिया के लोग
एक-एक करके खींचने लगे थे
तुम्हारे छोर
तुम्हारी कमजोरी
मेरा प्यार टकराने लगे
आज मैं फिर
से हो गयी हूँ अकेली
पहले से भी अधिक
अकेली
पर तुम्हरा जाना मेरे लिए
एक रास्ता छोड़ गया
जिसके कांटे मैंने बिन कर
रोंपे हैं गुलाब
मैं रोई बिल्कुल नहीं
बल्कि मैंने मन की दराज़ से
चिपके हुए लम्हों को खुरच दिया था
जो तुम्हारे साथ बीते थे पर अब बदबूदार से हो चले थे
आज मैं अबला नहीं रही
अपनी समस्त शक्तियों के साथ
सबल हो गई हूँ
और एक पूर्ण नारी हो गई हूँ
जिसे नहीं है दरकार किसी बैसाखी की।

*****

-अनिता कपूर

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