माँ नहीं रही

माँ तो गई
अब मकान भी पिता को
अचरज से देखता है
मानो संग्रहालय होने से डरता है
उसने खंडहरों में तब्दील होते
मुहल्ले के कई मकानों को देखा है

माँ तो चली गयी
अब मकान खुद ही
ढहने लगा है
उसे मंज़ूर है खुद का बिलखना
पर वो पिता को ढहते नहीं देख पाएगा
भाई अब तो पिता को ले जाएगा

माँ नहीं रही
कौन उठाये खिलाये
रातों को चाँद दिखा
बीती पूर्णमासियों को जिलाये
अब तो बस हर रात अमावस्या हुई

माँ इस घर से गई
घर खड़ा है
रहने वाले बिखर गए
बेटियाँ वापस ससुराल गयीं
भाई ने कहा
बेचो इसे
पिता हठ में
यादों की ईंटें
मेहनत कमाई से
मैंने बनाया
यहीं है रहना अंत तक
असमंजस में हम सब

माँ तो चली गई
बच्चे इस मज़बूत दुकान को
मॉल की छोटी-छोटी दुकानों में
बंटना नहीं देखना चाहते
इसलिए मज़बूत दुकान को
भाई ले गया
और माँ की तुलसी
माँ के कमरे की दीवार की ख़ुरचन
मैं विदेश ले आयी हूँ
आज माँ मेरे साथ है
तसल्ली है दुकान आज भी है।

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-अनिता कपूर

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