उफ़

क्या नाम दूँ तुझे ए ज़िंदगी
किस रूप में पहचानूँ तुझको
मेरे देश के गाँव के आँगन में
आँख-मिचौली खेलते हुए
हम दोनों हुए थे जवान
तेरे हर रूप रँगीले दिखते थे
इंद्र्धानुषी यौवन को तूने ही
लोरी गाकर सुलाया
रेशम सा सहलाया
पर मैंने तुझसे धोखा खाया
मेरे पारदर्शी स्वप्न
तेरे हाथ में थीं गरम सलाखें
फिर नहीं खनखनाई मेरी चूड़ियाँ
उदासी का घना जंगल
उग आया था मेरे दुल्हन वाले लिबास पर
पर तूने मेरे मन को नागफनी का काँटा चुभा ही दिया था
बंजारन सी मेरी ज़िंदगानी
कोयले से दहकता यायावर मन
सोचा समुन्द्र पार चलूँ
तो शायद ठंडक मिले
सन्नाटे बोलने लगे
कुछ सुकून है अब
तू तो अब भी साथ है
समुंदरी बयार तुझे भी अच्छी लगी है
फिर भी मैं पहचानने में असमर्थ हूँ
तू क्या है, ए जिंदगी
अब मैं तुझ सी हो चली हूँ।

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-अनिता कपूर

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