मन की गाड़ी

मन की गाड़ी रेल गाड़ी छूक छूक चलती है
पीछे पीछे जाती है ये
तेज़ नहीं चल पाती है ये
भूले बिसरे कुछ मोड़ों पर
सीटी जोर बजाती है ये
इसकी पटरी सीधी आड़ी, ये भी खूब मचलती है

साथी जो छूटे सफ़र में
ढूंढे उनको बीच डगर में
खाली-खाली सब दिखता है
खाली-खाली सी नज़र में
गांव, हाट या खेती बाड़ी, देख के फिर संभालती है

हर टेशन पे रुकना चाहे
फैला करके अपनी बांहें
नए लक्ष्य से अच्छी लगती
पीछे जो छूटी थी राहें
कभी अगाडी, कभी पिछाडी ऐसे ही टहलती है

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-नितीन उपाध्ये

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