शाम

अच्छे से वाकिफ़ हूँ इससे
जो अंधेरे जैसी छाई है,
जमाना कहे जिसे आज़ादी
एक लंबी सी तनहाई है ।
ए ख़ुद की मर्जी की मालिक,
तूने क्या किस्मत पाई है,
कहते हैं जिन्होंने हर रुत
अपनों के संग मनाई है।
इक अर्सा हुआ
हर शाम अकेले बिताई है,
शाम ढलने को है
साथ छोड़ती ख़ुद की ही परछाई है।
रात के साये मे फिर से
बेनाम डर से लडाई है,
लोग मिलते भी हैं दूर से
यहाँ ज़ुबान भी पराई है।
लेकिन आयेगी वो सुबह
सुनहरी धूप मे जो नहाई है,
हर आरज़ू होगी मुकम्मल,
सब्र के आड़ मे जो छुपाई है।

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-सई शिधये

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