मौन की सीमाएँ लाँघकर
घबराहट को पीछे बाँधकर
भावों की उलझन समेटकर
उमड़ती हुई हसरतें लपेटकर
मुझे तुमसे कुछ कहना था
महफ़िलों में भी तन्हा रहता हूँ
ख़ामोश सा सब कुछ सहता हूँ
तारे गिन-गिन हमने रात गुज़ारी
वही बोलते हैं तस्वीर से तुम्हारी
जो रूबरू तुमसे कहना था
चलोगे क्या थाम मेरा हाथ
इस सफ़र में दोगे मेरा साथ
समझ रहे हो न मेरे जज़्बात
हलक से निकली नहीं वो बात
जो मुझे तुमसे कहना था
मायूसी में कितने दिन बीते
तुमसे बिन कहे हम कैसे जीते
करते रहे उस पल का इंतज़ार
चाह कर भी न कह पाए हर बार
कि मुझे तुमसे कुछ कहना था

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