ग़ज़ल

वाबस्ता हैं सब जिससे, ज़ंजीर है तारों की
हँसना कभी रोना भी तक़दीर है तारों की

क्या ख़ूब फ़लक पर ये तहरीर है तारों की
लैला है या शीरीं है या हीर है तारों की

अम्बर से छलकता हर आँसू भी तो मोती है
इन ओस की बूँदों में तासीर है तारों की

नींदों में भी ख्वाबों के पंखों पर नज़र करना
परवाज़ में चमके जो तनवीर है तारों की

इक भूल-भुलैय्या में दिन भर जो भटकते हो
ये शब जिसे कहते हैं जागीर है तारों की

बेखौफ़ हमें करता है जिससे मिरा रब हरदम
महफ़ूज़ जो रखती है शमशीर है तारों की

“नीलम” को फ़क़ीरों ने ये बात बताई है
हर जश्न-ए-चराग़ां में तक़रीर है तारों की

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-डॉ नीलम वर्मा

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