जमने वाली बर्फ

-निखिल कौशिक

लंदन से लगभग 210 मील उत्तरी पूर्व-ब्रिटेन के जिस छोटे से शहर में मैं रहता हूँ, यहाँ बहुत बर्फ तो नहीं पड़ती पर जब पड़ती है तो जम के, कुछ दिनों के लिए सब कुछ अस्त-व्यस्त हो जाता है। ऐसा लगता है कि हम ब्रिटेन में नहीं, बल्कि अलास्का में रहते हैं। इसी प्रकार यहाँ भारतीय मूल के बहुत लोग तो नहीं हैं, पर हाँ, कुछ हैं जरूर। पूरे सप्ताह एक अंग्रेजी जीवन जीने के बाद जब कभी वीकेंड पर किसी के घर या फिर किसी पार्टी में ये दस-बारह भारतीय परिवार आपस में मिलते हैं तो ऐसा लगता है के हम ब्रिटेन में नहीं भारत में ही कहीं हैं।

इन गिने-चुने परिवारों के बीच एक संपूर्ण भारत पनपता है। इनके बीच ईद-दिवाली, दोस्ती, दुश्मनी, बहस, चर्चा-परिचर्चा, ऊँच-नीच वो सब बातें होती हैं जो हमें भारतीय बनाती हैं।

मेरे परम मित्र जावेद अख्तर हुसैन की पत्नी शहनाज लगभग मेरी ही उम्र की हैं। इस छोटे-से भारत में उनके संग मेरा रिश्ता संपूर्ण है, जावेद साहब मेरे लिए बड़े भाई का रुतबा रखते हैं, तो शहनाज भी मेरी पत्नी सुनंदा की सबसे पक्की सहेली हैं। 15 साल पहले जब मैं इस शहर में आया था, तो उन्होंने और जावेद साहब ने किस सहजता से मुझे अपनाया व मेरे जीवन के स्थायित्व में उनका कितना बड़ा हाथ है, ये मैं कभी नहीं भूल सकता। सच तो ये है कि मेरी पत्नी सुनंदा को भी उन्होंने ही मेरे लिए पसंद किया था। और मैं तो यह भी मानता हूँ कि यदि वो सुनंदा के पिता को मेरे बारे में भरोसा नहीं दिलवाते तो भोपाल राज्य सरकार के महासचिव अपनी इकलौती पुत्री का हाथ ब्रिटेन के किसी अनजाने छोटे से शहर में बसे मुझ जैसे एक साधारण से डॉक्टर को नहीं थमाते।

इस प्रकार इस छोटे से शहर में हम बरतानवी और भारतीय परंपराओं के बीच एक दोहरा-सा लेकिन व्यवस्थित जीवन जीते हैं।

अब से 5 घंटे पहले रात के 11 बजे थे और बिस्तर में घुसने से पहले मैंने और सुनंदा ने बेडरूम की खिड़की का पर्दा हटा कर देखा था, हलकी-हलकी बरफ पड़ रही है। सुनंदा को तो बरफ देखने में बड़ा आनंद आता है, पर मुझे बरफ बिल्कुल नहीं सुहाती क्योंकि बरफ से ढँकी सड़कों पर गाड़ी चलाना मुझे बहुत कठिन लगता है और कभी रात-बेरात हॉस्पिटल से बुलावा आ जाए तो मेरा मन करता है कि सब कुछ छोड़-छाड़ कर भोपाल ही चला जाऊँ।

इसी तरह सोचते-विचारते मैं कब गहरी नींद में सो गया मुझे पता ही नहीं चला। सुनंदा ने मुझे हिला कर जगाया और कहा तुम्हारा मोबाइल बज रहा है। जब तक मैं फोन उठा पाता, फोन कट गया। मैंने फोन के डिसप्ले को देखा तो मिस्सड कॉल शहनाज की थी। इतनी रात गए शहनाज का फोन। मैं बिस्तर से बाहर निकला और सुनंदा को डिस्टर्ब न करूँ इस विचार से फोन लेकर बेडरूम से बाहर आया और शहनाज का नंबर डायल किया। एक ही बैल हुई और उधर से शहनाज की घबराई हुई आवाज सुनाई दी…. “अनिल मैं शहनाज बोल रही हूँ। प्लीज आप एकदम यहाँ आ जाइए। मैं बड़ी मुश्किल में हूँ। बस आप एक दम यहाँ आ जाएँ। किसी को कुछ नहीं बताइए, सुनंदा को भी नहीं। और हाँ मैं घर से नहीं, होलीडे इन में रूम नंबर 205 से बोल रही हूँ। बस आप एकदम आ जाओ… प्लीज!” एक ही साँस में इतनी सारी बात बोलकर शहनाज ने फोन काट दिया।

मैं दबे पाँव बेडरूम में दाखिल हुआ तो सुनंदा ने करवट ली… किसका फोन है” उसने पूछा। “कुछ नहीं, हॉस्पिटल से है, जाना पड़ेगा। तुम सो जाओ,” कहकर मैंने वार्डरोब से कपड़े निकाले, जल्दी-जल्दी पैंट-कमीज और मोटा स्वेटर पहना। फिर बाथरूम में जाकर हाथ-मुँह धोकर घर से बाहर निकला तो देखा कि ड्राइव पर और गाड़ी पर बरफ की चादर बिछी हुई है। मैंने गाड़ी स्टार्ट की और घर के भीतर आकर मोटा अनोरेक, सिर पर टोपा और दस्ताने पहन कर घर का दरवाजा बंद किया और गाड़ी के ऊपर से बरफ हटाई।

होलीडे इन मेरे घर से कोई दो मील दूर है, और मैं वहाँ के फिटनेस क्लब का मेंबर भी हूँ। आम तौर पर यह फासला 4-5 मिनटों का है, परंतु रात के इस पहर में बर्फ से ढँकी राहों पर जिस रफ्तार से मैं गाड़ी चला सका मुझे वहाँ पहुँचने में कोई 30 मिनट लग गए।

इन तीस मिनटों में मेरे दिमाग में उथल-पुथल मची रही। शहनाज का फोन, वह भी रात के इस समय, एक होटल के कमरे से… कुछ समझ नहीं आ रहा था।

होलीडे इन के पोर्च के सामने वाली पार्किंग में जावेद अख्तर हुसैन की मर्सिडीज खड़ी थी, मैंने अपनी गाड़ी उसके पास ही खड़ी की और रिसेप्शन पर पहुँचा। वहाँ रिसेप्शन पर कोई नहीं था, मैंने घण्टी बजाई तो अंदर से रिसेप्शनिस्ट आई। मैंने उसे बताया के मुझे कमरा नंबर 205 में मिसेस शहनाज अख्तर से मिलना है। उसने कंप्यूटर के स्क्रीन पर देखा और कहा के रूम नंबर 205 में तो शहनाज अख्तर नहीं, कोई मिस्टर विनोद रंधावा हैं। मुझे कुछ समझ नहीं आया। मैंने रिसेप्शनिस्ट से कमरे में फोन करने को कहा तो उसने अपनी असमर्थता बताई, इस पर मैंने अपने मोबाइल से शहनाज को फोन लगाया और उनकी बात रिसेप्शनिस्ट से करवाई। रिसेप्शनिस्ट ने उनसे बात कर मुझे बताया के कमरा नंबर 205 दूसरी मंजिल पर है, और बेहतर होगा के मैं सीढ़ियों से ऊपर जाऊँ, क्योंकि लिफ्ट कुछ ठीक से काम नहीं कर रही।

मैं सीढ़ियों से दूसरी मंजिल पर पहुँचा और कमरा नंबर 205 पर दस्तक दी। दरवाजा शहनाज ने खोला। उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ी हुई थीं। सामने बिस्तर पर मेरी नजर पड़ी वहाँ कोई सोया हुआ था। मेरे अंदर आते ही शहनाज ने दरवाजा बंद किया और फफक-फफक कर रोने लगी। मुझे पकड़ कर वह मेरे पाँव से लिपट गई।

“… मुझे बचा लो अनिल, ये क्या हो गया।”

“क्या हुआ, आप बैठो तो सही, प्लीज सँभालो अपने आपको…” मैंने शहनाज को थाम कर सामने रखी कुर्सी पर बैठाया।

शहनाज एकदम स्तब्ध थी, उसकी आँखों में आँसू और एकदम काँपता शरीर।

“क्या बात है शहनाज, ये कौन है, क्या हुआ, बताओ मुझे, तुम इस समय इस कमरे में, क्या बात क्या है?”

“मैं क्या बताऊँ आपको… क्या बताऊँ मैं…” कह कर शहनाज फिर गुम सी हो गई।

कुछ देर वह चुप रही-और मैं भी चुपचाप सारे कमरे का जायजा लेने लगा। कमरे में एक कोने में एक अधखुली अटैची बेड लाइट के पास पानी का गिलास, और बिस्तर पर मुह ढाँप कर सोया हुआ कोई व्यक्ति।

मैंने कुर्सी के सामने पड़ी मेज पर बैठते हुए शहनाज का हाथ थामा और कहा- “शहनाज, क्या बात है, प्लीज टेल मी, व्हाट इज आल दिस, बताओ मुझे क्या बात है?”

“ये विनोद हैं। हम कॉलेज में साथ पढ़ते थे। आज शाम 9 बजे इनका फोन आया—इतने बरसों के बाद। ये यहाँ किसी बिजनेस के सिलसिले में आए हैं और सुबह वापस चले जाएँगे। लगभग दस साल बाद इनसे बात हुई तो मुझे अच्छा लगा। मैंने सोचा इनसे मिलूँ। मेरे घर बुलाने पर इन्होंने कहा कि ये थके हुए हैं। फिर सर्दी है और बरफ पड़ने के आसार भी। तो मुझे लगा कि मैं ही मिल आऊँ। जावेद तो एडिनबरा गए हैं, परसों लौटेंगे। मैं कोई दस बजे यहाँ आई तो इतनी सारी पुरानी बातें निकलीं और हम बातों में ऐसे गुम हुए कि समय का कुछ पता ही नहीं चला। कोई एक बजे मैं बाथरूम गई—जब बाहर आई तो ये बिस्तर पर लेटे थे और मुझे लगा कि इनकी तबीयत ठीक नहीं है। इन्होंने कहा कि इनकी छाती में दर्द हो रहा है। मुझे लगा कि ऐसे में इन्हें छोड़ कर जाना ठीक नहीं होगा। मैंने कहा कि मैं डॉक्टर को बुलाऊँ—पर इन्होंने कहा कि नहीं शायद थकान की वजह से एक बार पहले भी इन्हें ऐसा हुआ था। इन्होंने अपनी अटैची में से एक गोली निकाली और खाई। मुझे लगा कि गोली खाकर इन्हें कुछ आराम आया और मैं जाने को तैयार हो गई। अचानक इन्होंने कहा कि इनका दिल घबरा रहा है—और मुझे भी कुछ सूझ नहीं रहा था कि मैं क्या करूँ—इसके अलावा के मैं कुछ देर और इनके पास बैठी रहूँ। ये बिस्तर में लेट गए और मैं यहाँ इस कुर्सी पर बैठी रही। मुझे पता नहीं कब और क्यूँ मेरी आँख लग गई। अभी कुछ देर पहले मेरी आँख खुली तो देखा के साढ़े 3 बज गए हैं। मैं एकदम उठी और जाने के लिए तैयार हुई; मैंने सोचा कि इन्हें ब्लेंकेट ठीक से ओढ़ा दूँ और बता दूँ कि मैं जा रही हूँ। जब मैंने इनका ब्लेंकेट ठीक किया तो मुझे लगा कि इनका शरीर बहुत ठंडा है। मैंने इन्हें छुआ तो इनका शरीर एकदम बरफ हो चुका था और इनकी नब्ज टटोली तो पता चल गया कि ये गुजर चुके हैं।

मैं तुम्हें फोन करूँ, इसके अलावा मुझे कुछ भी नहीं सूझा—और तभी मैंने तुम्हें फोन कर दिया।” यह कह कर शहनाज एकदम चुप हो गई।

इस समय मेरी घड़ी में 4 बजकर 12 मिनट हुए हैं, कमरे में बिल्कुल शांति है। खिड़की के पर्दों के बीच के जरा से फासले से मैं बाहर देख रहा हूँ कि बरफ तेजी से पड़ रही है और मुझे डर है कि इस बार ये काफी देर तक जमी रहेगी। इसके अलावा मैं इस पल और कुछ सोच ही नहीं पा रहा हूँ।

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(साभार : ‘ब्रिटेन की प्रतिनिधि हिंदी कहानियाँ’, संपादक- जय वर्मा, प्रकाशक- प्रलेक प्रकाशन, मुंबई)

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