आसमान तो मेरा है

डोली में बिठाते हुए
माँ ने बेटी को
एक लम्बी सूची हाथ में थमाई
और बोली– यह तेरी अमानत है।
सोचा, दहेज़ के सामान की सूची होगी।
बेटी ससुराल पहुँची,
काग़ज़ का वो टुकड़ा खोला,
लिखा था–
नसीहत के तौर पर कहना चाहती हूँ,
माँ हूँ, तजुर्बा रखती हूँ,
बताना चाहती हूँ –
ब्याहा है तुम्हें,
पिताजी की उम्र भर की पूँजी
दहेज़ में लग गयी।
अभी घर में छोटी बहन है,
भाई भी कुँवारा है,
भाभी कभी तो आएगी,
ताने भी सुनाएगी,
जो भी हो, अपने घर में ख़ुश रहना,
कोई कलंक न लगाना,
सभी औरतें सहती हैं,
जैसे भी हों हालात,
मेरी लाड़ली बच्ची सहना।

कुछ ही दिनों में–
हुआ शब्दों का प्रहार,
फिर दहेज़ के लिए पड़ी मार,
बढ़ता गया अत्याचार।
इधर माँ फ़िक्र की मारी हुई थी,
उधर बेटी चुप्पी धारे हुई थी।
आख़िर, माँ का फोन आया –
“इतने दिनों से ख़बर नहीं आई,
न ही तूने ससुराल की कोई बात बताई,
मेरे घर से तो ले गयी,
तेरे ससुराल में ख़ूब होगी रौनाई।

सुनकर बोली बेटी–
“माँ,
याद हैं तुम्हारी सब नसीहतें
वह सूची भरा ख़त,
तुम तंग होना मत,
बस इतना कहना चाहूँगी –
मैं कोई कलंक नहीं लगाऊँगी,
न ही कुछ बताऊँगी,
कभी लौटकर भी नहीं आऊँगी,
लेकिन – आसमान तो मेरा है,
कभी तो उड़ना चाहूँगी।”

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-कुल दीप

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