
पानी की बूँद
मैं पानी की बूँद चली क्यूँ दूर मेघ से पार।
क्या होगा, ये क्या जाने, कैसा होगा संसार।
सोच रही है बूँद ये कब से
क्या मेरा कल होगा
क्या छोटी ही रह जाऊँगी
कि एक बड़ा पल होगा
गिरने को जंगल ही होगा
या फिर पर्वत होगा
या तो मेरा एक ठिकाना
किसी की छत पर होगा
क्या कोई प्रतीक्षा में होगा स्वागत को तैयार।
क्या होगा, ये क्या जाने, कैसा होगा संसार।।
शायद हो जो एक नदी
या मीठे पानी का झरना
कमल भरे तालाब गिरूँ
तो फिर क्या मेरा कहना
मन से ना गिर पाऊँगी
जो एक समुंदर पाया
खारा-सा हो जाएगा
जो भी सपना है पाला
नहीं पूछता कोई मुझसे मेरा क्या अधिकार।
क्या होगा, ये क्या जाने, कैसा होगा संसार।।
काश! कहीं गिर पाती मैं
किसी खेत के पास
किसी किसान की पूरी होती
बारिश वाली आस
सावन में जो रिमझिम बनती
शिव की नगरी को धोती
गिरती गंगा परम धार में
पावन-सी सरिता होती
केवल बूँद नहीं होती मैं, होती एक उपहार।
क्या होगा, ये क्या जाने, कैसा होगा संसार।।
मैं पानी की बूँद चली क्यूँ दूर मेघ से पार।
क्या होगा, ये क्या जाने, कैसा होगा संसार।।
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– आशीष मिश्रा