
व्हाट्सअप – लुत्फ़, कोफ़्त और किल्लत
– दिव्या माथुर
एक ज़माना था कि जब हम व्हाट्सऐप को प्रभु का वरदान मान बैठे थे, फिर जो वरदानों की बौछार शुरू हुई कि, वो कहते हैं न, कि ‘तौबा की, फिर तौबा की, फिर तौबा कर के तोड़ दी, मेरी इस तौबा पर तौबा, तौबा तौबा कह उठी’। अब तो यह आलम है कि सचित्र और स-वीडियो कृपा हर सुबह बरसती है – सोमवार को शिव जी, मंगलवार को हनुमान जी (आज आपकी कुंडलिनी भी जाग सकती है), बुधवार को गणेश जी, वीरवार को विष्णु जी, शुक्रवार को संतोषी माता, शनिवार को शनि देव (नवग्रह) और फिर सभी दिनों में सबसे महत्वपूर्ण रविवार (बाइबिल के अनुसार आराम फ़रमाने का दिन), को सूर्य नारायण जी; उनके बिना तो अंधेर नगरी चौपट राज न हो जाएगा। लोग राजा रवि वर्मा का नाम तक नहीं जानते पर उनके बनाए चित्रों के बगैर अब सुप्रभात नहीं होती।
‘जय राम जी’, नमस्ते और ‘जय श्री कृष्णा, केम छो’ के बाद स्वरचित अथवा गूगल से उठाए गए उपदेश, नेपथ्य में बीवी-बच्चों की रेलमपेल के चलते मुसलमानों के बच्चों की हाय-तौबा, भारत की सभ्यता, वास्तुकला और संस्कृति इत्यादि वीडियो पेलने के बाद शुरू होता है स्वरचित रचनाओं का दौर, जिसमें अतुकांत अथवा तुक भिड़ाई गई अटपटी कविताएं सरपट दौड़ लगाने लगती हैं, तालियाँ पीटने के अनुरोध/धमकियों सहित, तुर्रा यह कि बिना आपकी अनुमति के आपको पचासियों पटलों पर शामिल कर लिया जाता है।
फिर आया कोरोना, हमसे अधिक हमारे स्वास्थ्य की चिंता इन्हें-उन्हें सताने लगी। विश्व के वैज्ञानिक जब टीके बनाने पर करोड़ों खर्च कर रहे थे, हमारे तथाकथित विशेषज्ञों ने अपने बलबूते पर ही जड़ी बूटी, ध्यान, योग इत्यादि द्वारा इस महामारी को मार भगाया। व्हाट्सअप का लुत्फ़ जल्दी ही कोफ़्त में बदलने लगा था जब अपने को अक्लमंद समझने वाले लोगों ने नए नए उपयोग हम पर लादने शुरू किए, एक रोग के पीछे तीर कमान ताने सैंकड़ों कुकुरमुत्तों से उग आए तथाकथित डॉक्टर्स। असली डॉक्टर्स के हाथ पाँव जोड़ते घायल हिरनियों से तड़पते मरीज़ और कैसी भी दवा-दारू मुहैया कराने में अस्त-व्यस्त उनके लाचार परिवार।
इस बीच एकाएक गेरुए कपड़ों, टीकों और कृत्रिम रुद्राक्ष की मालाओं से सुसज्जित बाबाओं और गहनों से लदीफदी, भारी मेक-अप से लिपि-पुती माताओं ने व्हाट्सअप पर हमला बोल दिया, ‘इस संदेश को दस मिनट के अंदर 20 लोगों को नहीं भेजा तो तुम्हारी खैर नहीं’। इस जमाने में चार कंधे जुटाना मुश्किल है और रिश्तेदारों ने तो हमें यूँ ही त्याग रखा है, कहाँ से जुटायें 20 लोग इसलिए यह मामला न्यायालय के बाहर ही निपट गया।
इसी दौरान शुरू हुआ ऑनलाइन सम्मेलनों का दौर; आंचलिक गोष्ठियों को अंतरराष्ट्रीय स्वरूप देने के वास्ते एक आध प्रवासी को शामिल करने का फ़ैशन ‘फलाँ देश के फलाँ व्यक्ति तीस चालीस सालों से हिंदी की सेवा कर रहे हैं।’ जो दो वाक्य ठीक से नहीं लिख सकते, ऐसे ऐसे फ़लाने ढिमकों को प्रतिष्ठित, लब्ध-प्रसिद्ध, विख्यात, प्रख्यात जैसे संबोधनों से सुसज्जित किया जाता है, मज़े की बात तो यह है कि वे भी अपनी गिरेबान में झाँकने की बजाय राजसी गौरव स्वीकार कर लेते हैं। दोनों पारियों के लेखक सेवक एक दूसरे की इज़्ज़त बचाए रखते हैं; उनकी रचनाएं ‘वाह वाह’ के साथ सुनी/पढ़ी जाती हैं, है कोई माई का लाल/लल्ली जो इनकी आलोचना करने की हिमाकत कर सके।
डिस्क इतनी भर चुकी है कि फ़ोन ठीक से काम नहीं कर रहा, यह रोजमर्रा की किल्लत है, रोज़ ‘डिलीट’ करती हूँ और हर रोज़ ‘डिस्क फ़ुल’ का संकेत भयाक्रांत करता है किंतु व्हाट्सअप रूपी इस विकराल किल्लत के विकल्प क्या हैं? क्या बने बात जहां व्हाट्सअप हटाये न बने।
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