
त्रिया चरित्रम पुरुषस्य भाग्यम
– दिव्या माथुर
जौर्ज बर्नार्ड शा के मुताबिक पुरुष को चाहिए कि जब तक टाल सके टाले और स्त्री को चाहिए कि जितनी जल्दी हो सके शादी कर डाले; आजकल बहुत से प्रेम-सम्बंध इसी सिद्धांत पर परवान चढ़ते हैं।
‘त्रिया चरित्रं, पुरुषस्य भाग्यम देवो न जानाति, कुतो मनुष्य:’ फूंक-फूंक कर क़दम रखने के बावजूद, इकतरफ़ा या दोतरफ़ा प्रेम पेंगे लेने लगता है; बिल्ली के भाग से छींके भी टूटते ही रहते हैं। एकल, तलाक़शुदा और मामूली नैन-नक्श वालों को भी डौन किहोटी अथवा लौलिता सरीखे साथी मिल जाते है। कइयों के लिए प्रेम व्रेम का तो बहाना होता है, घर के सौ काम करवाने होते हैं, जैसे घास कटवाना, घर पुतवाना, कपड़े इस्तरी करवाना, कार में भारी सामान उठवा लाना इत्यादि।
वैक्सिंग, पैडीक्योर, मैनीक्योर, बाल-सज्जा, मूंछों की कटाई-छटाई, कीप-फ़िट, योग और ज़ूम्बा इत्यादि पार्लरस ऐसे ही संबंधों पर टिके हैं। टिकाऊ संबंधों से सब बचते हैं, जहां कोई बेहतर मिला तो टाटा बाए बाए।
कभी-कभी इसका उल्टा भी हो जाता है, यानि कि चिपकु, जितना धकेलो दूर धकेलो, चुम्बक की तरह उतने ही वेग से वापिस आ चिपकते हैं। अपने नाम के साथ कोई ‘स्टिल ए वर्जिन!’ का तमग़ा भला क्यों लगवाना चाहेगा। ख़तरा तो चारों तरफ़ से रहेगा ही, इस ज़माने में ऐसा कौन है जो अपना असली चेहरा लिए घूमता हो? कोई जीना थोड़े ही छोड़ सकता है?
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