
प्राचीनतम-आधुनिकतम : इटली
– दिव्या माथुर
लंदन की यांत्रिकता के चक्रव्यूह से निकल, फुर्सत के कुछ दिन एक ऐसी जगह बिताने का मन था इस बार, जहां प्राचीन तोरण-द्वार-इमारतें हों, पुरातन सांस्कृतिक संस्थायें, पुस्तकालय और विश्वविद्यालय हों, नाट्यशालाएं हो, सेतु-पुल-पुलिया-उद्यान हों, चौक-चौराहे-वीथिकायें, आंगन-भवन, चर्च-मठ, बुत-चित्रा-इतना कुछ और वह ीाी एक छोटी सी जगह में हो ताकि हफ्तों, घूम-घूम के हम थक के इतना चूर न हो जाएं कि वापिस आकर कुछ और छुट्टी लेनी पड़े सुस्ताने के लिए। आप भी सोचेंगे कि मैं सयिा गई हूं या मज़ाक कर रही हूँ। नहीं जनाब, एक ऐसी जगह है धरती पर ओर उसका नाम है इटली। बेटी शैली पिछले साल ही वहां होकर आई थी और इटली का गुणगान जब तब करती रहती थी। साथ जाने के लिए मैंने पूछा तो झटपट तैयार हो गई। विशेष विमान के सस्ते टिकट भी मिल गये।
मुद्रा-विनिमय के लिए जब हम बैंक पहुंचे तो लगा कि हम भी करोड़पति हो गये, कुछ दिन के लिए ही सही। इतालवी लीरे की कीमत इतनी कम है कि पूछिये नहीं।
लेन-देन दस-बीस या सौ-दो सौ में नहीं, हज़ारो से शुरू होता है। एक पाउंड में पच्चीस सौ लीरे होते हैं।
घर से हवाई-अड्डे पहुंचे-हल्के फुल्के मन से भी और सामान से भी। हम जैसे हज़ारों, रईसज़ादे इटली जा रहे थे। अधिकतर पर्यटक रोम या वैनिस सीधे जा रहे थे किंतु हम लोग बोलोन (बोलोनिया) जाना चाहते थे, जो एक छोटा सा नगर था और शैली ने बताया कि मुझे बहुत पसंद आएगा। यहां से हम फ्लोरैन्स जाएंगे और वहां से वैनिंस। और फिर बोलोनिया होते हुए वापिस लंदन।
बोलोन (बोलोनिया)
तो हमारा ये पहला पड़ाव था। साफ-सुथरा, करीने से सजा छोटा सा नगर जिसे हम दिन भर में देख सकते थे, थकान इतनी भर कि खाना खाकर गहरी नींद आ जाए।
इटली के पूर्व में, रैनो और सवेना नदियों के बीच यह चौथी शताब्दी का रोमन उपनिवेश सचमुच मनमोहक था। हवाई अड्डे पर 2400 लीरे के बस के टिकट लिए और हम शहर पहुंचे वहां की भीड़-भाड़ भरी संकरी सड़कें, यातायात की अनुशासनहीनता देख बरबस पुरानी दिल्ली की याद हो आई। ‘वही है ज़मीं, वहीं आसमां/इलाही वह दिल्ली की गलियां कहां’ ये शेर बेसाख्तां गूंजने लगा। वही वातावरण, वहीं परिवेश।
गनीमत थी कि इतावली भाषा की अक्षमता आड़े नहीं आई। किसी भी भाषा में यहां के निवासियों से बतिया सकते थे। वे समझें न समझंें किंतु जवाब में उनके हाथ-पैर ज़ोर-ज़ोर से हिलने लगतें, चेहरे पर भावों की आवाजाही और इतालवी भाषण तब तक चलता जब तक कि आज ‘ग्रसिए’ (धन्यवाद) कहकर आगे न बढ़ जाएं। फ्रांस में इसके बिल्कुल विपरीत होता था। आप सुबह से शाम तक पूछते रहिए, कोई उत्तर नहीं मिलेगा। लगता था वहां सब बहरे और गूंगे थे।
खैर अपना होटल, एपोलो ढंूढते रहे, नक्शे पर निशान साफ लगा था वही जगह थी पर होटल नदारद लंदन में हमें ये नहीं बताया गया था कि वहां होटल को ऐलबर्गो कहते हैं। किसी तरह इस द्विविधा से उबरे तो मैनेजर ने साफ इंकार कर दिया कि हमारे एजेंट ने कोई कमरा हमारे लिए आरक्षित करवाया था यद्यपि हम देख रहे थे कि लंदन से भेजा गया फैक्स उसके हाथ में था। मैंनेजर के साथ खड़ी एक भीमकाय महिला इतालवी में चिल्ला चिल्लाकर धारा प्रवाह बोले जा रही थी, मैंनेजर की मुद्रा उसका समर्थन कर रही थी। अंततः उन्होंने 70,000 लीरे पर हमें एक कमरा दे तो दिया, पर उसमें नहाने-धोने की सुविधा भी नहीं थी। सामान कमरे में बंद कर हम निकल पड़े। सबसे पहले टबाची (कार्नर-शाप) से 8,000 लीरे का एक नक्शा खरीदा।
हमें सड़क पार कर स्टेशन की ओर जाना था। टैªफिक हर तरफ से आ-जा रहा था। कुछ देर इस अव्यवस्था का आनंद लेते रहे, छुट्टियों पर थे भई! एक रेला सड़क पार कर रहा था, हम भी उनके पीछे हो लिए। बायें हाथ की ड्राइव में वैसे ही अटपटा लग रहा था जाने वाले लगता था आ रहे हैं और आने वाले जा रहे थे। आवागमन का चक्कर सा जो कभी किसी की समझ में नहीं आया।
स्टेशन से हमें अगली सुबह का आरक्षण करवाना था फ्लारैन्स के लिए। यहां रेलयात्रा काफी सस्ती है, सुखद भी। स्टेशन एक कम्प्यूटराइज़्ड नगरी थी। प्लेटफार्म को यहां ‘बिन’ और स्टेशन को ‘स्टेजियान’ कहते हैं। पूछताछ अधिकारी को थोड़ी अंग्रेजी आती थी। हमने जितना पूछ सकते थे, पूछ लिया। भारी-भरकम चमचमाती इमारतें यहां की विकसित वास्तुकला का परिचय दे रही थीं।
आच्छादित गलियां शहर का मुख्य हिस्सा शहर के बीचों-बीच ऐसीनेली और गारीसैन्डा नामक दो मीनारें थी, एक 300 और दूसरी 150 फीट ऊंची, दोनों ग्यारहवीं सदी में निर्मित की गई थी। पालेजी-महल आज का टाउन हाल था। इसके पास ही था आज का वाणिज्य मण्डल भवन जहां सम्राट क्रैडरिक को मरते दम तक कैद रखा गया था। पैलेजो बेविलाका पन्द्रहवीं शताब्दी का महल है, जिसके आंगन-प्रांगण विशाल और शानदार हैं।
ये सब इमारतें आस-पास हैं एक के बाद एक। चौदहवीं सदी में बना पैटरोनिओं चर्च जो आज तक पूरी नहीं हो पाया और जहां 1530 में बादशाह चार्ल्स-5 का ताज पहनाया गया था। इससे लगा ही था पैट्टो मैट्रोपोलिटान नामक प्रसिद्ध मठ।
बोलोनिया प्रसिद्ध है अपने विश्वविद्यालयों के लिए। ग्यारहवीं सदी में निर्मित यहां का विश्वविद्यालय बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में अपनी ख्याति की चरम सीमा पर था।
इस छोटे से शहर में न जाने कितने संग्रहालय हैं, मुख्य तीन संग्रहालय हैं-पुरातत्व, मध्यकालीन और राष्ट्रीय पिनाकोठे का निजानियल-सब मानों आपस में गुंथे हुए से। बिल्कुल दिल्ली की गलियां हैं यहां, साफ एवं परिरक्षित। प्राचीन वृहत दीवारें, किलों जैसे भवन और लंबे चौड़े आंगन, जामामस्जिद जैसे। ईंटों का अभिकल्प और छोटी-छोटी सी साफ सुथरी दुकानें। यहां लोग घंटों बैठे रहते हैं। लगता है यहां लोगों को कुछ काम न था, विशेष तौर पर मर्दो को। रोम का निर्माण एक दिन में नहीं हुआ यह कहावत शायद इसी सुस्ती के संदर्भ में बनी होगी।
इन्हीं छोटी दुकानों में एक में हमने बैठकर चाय पी और समोसे खाए। हमें दूध की चाय पीते देख कई भृकुटियां उठीं, तनीं। ‘बार’ की संचालिका एक वरिष्ठ महिला थी, जिसके बलिष्ठ ठहाके विश्वविद्यालय में गूंज रहे थे। ढेर सा मेकअप, विशेष रूप से पलकों पर पोते अधिकतर महिलाएं ये बार-नुमा दुकाने चलाती हैं। यहां के निवासी काली चाय ें नींबू निचोड़ कर पीते हैं या फिर कैपूचीनों।
सुप्रसिद्ध इंडिपैंजा चौराहा-बाजार शहर के मध्य में था। जहाँ देखों वहां किताबों के ढेर, सड़कों पर रखी मेजों पर, दुकानों में और संग्रहालयों में। न जाने ये लोग कितना और कब पढ़ते हें क्योंकि हाथ में किताब लिए तो हमें कोई भी नज़र नहीं आया।
विश्वविद्यालय परिसर में गुज़रे तो छात्रा-छात्राएं सिर्फ ठिठोली करते पाये, यद्यपि लंदन और पेरिस की तरह यहां चूमा-चाटी नहीं हो रही थी। माहौल स्वच्छंद था एकाएक हमें लगा कि सब हमें खास तवज्जों दे रहे थे। अपना निरीक्षण किया हमने कि कहीं हम कुछ गलत तो नहीं पहने थे। दो महिलाएं अकेली यह भी इंडियन -अचम्भे वाली बात थी इन छात्रों के लिए। छात्राएं अपनी भारी और भद्दी आवाज़ में चपर-चपर कर रही थीं, जबकि छात्रा चुपचाप एक रोमारी अंदाज़ में खड़े भर थे अनभिज्ञ छात्राओं से कि वह क्या कह रही थीं। विदेशी यहां नहीं के बराबर थे, वे जो हज़ारों की भीड़ हीर्थो एयरपोर्ट पर मिली थी। शायद रोम, या वैनिस जा रही थी। यहां केवल हम थे-सबकी आंखों का केंद्र बनें।
लगा यहां पुरुषों को महिलाओं का निरीक्षण करने की आदत है, छूट भी। ऊपर से नीचे तक बेधड़क यूं देखते हैं, मानो खरीदने जा रहे हों, किंतु उस नज़र मंें न तो नदीदापन था, न ही सैक्स की ललक, सिर्फ पैनी विश्लेषण दृष्टि।
जगत-प्रसिद्ध इटली की जीनो-जिनैली आइसक्रीम खाई तो वाह! मजा आ गया। लंदन में खाई है कई बार पर यह लुप्त नहीं। मोटापे का भय न होता तो पांच दिन पेट इसी से भरते।
विया-मार्कोनी-बाजार (आविष्कारक मार्कोनी इसी शहर के थे) लंदन या पेरिस से कहीं महंगा था। खरीदारी का विचार त्यागा (हालांकि हम लखपति तो थे एक पाउण्ड की कीमत यहां 2500 लीरे थी) किंतु एक चाय भी 3000 लीरे की थी। पैसा बहा रहे थे, देखिये रईसी कब तक टिकेगी।
भूख लग रही थी पर भोजन यहां केवल सात बजे के बाद ही परोसा जाता था। इसलिए हम सिविक संग्रहालय चले गये जां पुरातन संस्कृतियों से संबंधित अवशेष सुरक्षित हो। यह सतारहवीं सदी में निर्मित किया गया था। कला-दीर्घा में केवल प्रसिद्ध चित्रा हैं सेंट सिसलिया का रैफेएल द्वारा बनाया उत्कृष्ट चित्रा भी इसी दीर्घा में है। चित्रों और चित्राकारों के नाम इतने मुश्किल है, उच्चारण में भी और लिखने में भी कि हमने सोचा कि बेहतर होगा कि हम आनंद भर ले लें।
लगता नहीं कि बोलोनिया केंद्र है रेल और सड़कों का। यहां से गुज़रकर ही आप इटली के किसी भी भाग में पहुंच सकते हैं। कृषि प्रधान ये शहर खाद्य पदार्थो की प्रोसैसिंग में भी अग्रणीय है। वापिस होटल आए, थोड़ा आराम किया और फिर निकल पड़े भोजन की तलाश में।
यहां के भोजनालयों के नाम भी, यहां के भोजन की तरह ही लजीज हैं कैटोरिया, पैनेटोरिया, ट्रैटोरिया इत्यादि। आज हमने एक पैनेटोरिया चुना है, जहां हम इटली का प्रसिद्ध भोजन मैंने खाएंगे। पतली मैदा से बनी रोटी जिसमें पालक या मीट भरा होता है, उस पर विशेष गर्म बहता पनीर जिसमें कुछ जड़ी-बूटियां तैर रही थीं। हमने स्मोक्ड सैमन-मछली का पैने बनवाया था। वाह! मजा आ गया। मीठे में शैली ने लपटें उठती आईसक्रीम और मैंने केवल ताजा फल खाए। शैली की प्लेट से कुछ चम्मच आईसक्रीम खाने का लालच मैं नियंत्राण नहीं कर पाई थी। वह भी नहीं चाहती थी कि इस अजनबी शहर में उसके पेट में दर्द हो।
नौ बजे तक हम सड़कों पर यूं ही घूमते रहे। सड़कें शांत थीं, भीड़-भाड़ भी नहीं थी, मौसम खुशगवार था। कुल मिलाकर बोलोनिया मेरी पसंद की नगरी थी, जहां मैं रिटायड्र होकर बस सकती थी। पर देखें अन्य शहर केसे हों। होटल आए और सो गये। सुबह-सुबह फ्लोरंेस जाना था-फूलों की नगरी।
फिरेन्जी (फ्लोरैन्स)
माईकेल एन्जेलो का शहर फ्लोरैन्स, बोलोन से केवल एक डेढ़ घंटे के फासले पर ही था। गाड़ी भी एक्सप्रेस थी। यहां भी लंदन की भांति लोग अखबारों और पत्रिकाओं में डूबे थे। जब कभी कोई सिर उठाता, यंत्राचालित मुस्कान फेंक वापिस अखबार में छिप जाता। अपने देश में होेते तो अब तक सहयात्रियों के घर का अता-पता ले रहे होते, ताश खेलते और आलू-पूरी, अचार का आदान-प्रदान तो अवश्य होता।
गाड़ी की खिड़कियां बहुत बड़ी व साफ थीं। बाहर दृश्य मनमोहक थे। हरी घाटियां, पहाड़, बादल, नदियां, झरने, साफ-सुथरे महान, पगडंडिया मानों फिल्म देख रहे थे।
कब फ्लोरैन्स आ गया, जाना ही नहीं। स्टेशन पर टूरिस्ट बोर्ड का बिल्ला लगाए होटल वाले अपने-अपने होटलों की तारीफ कर रहे थे, फोटो दिखा रहे थे। चिपका किंतु कोई नहीं। शहर के बीचों-बीच हमने एक होटल चुना और 29,000 लीरे का एक कमरा हमंे मंहगा नहीं लगा। ओखली में सिर दिया ही था तो मूसल से क्या डरते, बालकनी से झांका तो वहां पूरा शहर दिखाई दे रहा ािा। नीचे ही एक बड़ा उद्यान था। रंग-बिरंगे फूलों से भरा, संगमरमर की प्रतिमाएं चारों दरवाजों पर थीं और बीचों-बीच एक बड़ा फव्वारा, जिसमें रंग-बिरंगी लाइटें जगमगा रही थीं। एक बारगी तो मन हुआ कि बस यहीं बैठकर सुस्ताया जाए पर जहां शैली हो, वहां दो घड़ी का चैन भी नामुमकिन था टबाची से नक्शा खरीदा और निकल पड़े पैय्या-पैय्या हम दोनों शहर नापने! सबसे पहले स्टेशन गए वापिस और वैनिस फिर वैनिस से बोलोनिया का आरक्षण करवाया। एक ब्यूटी पार्लर में शैली ने अपने बाल ट्रिम कराये। क्या खिदमत हुई यहां कि पूछिए नहीं। 25 मिनट में 35,000 लीरे देकर बुरा नहीं लगा।
आर्नो नदी की एक मनमोहक घाटी में स्थित फ्लोरैन्स इटली का एक बड़ा शहर है और यहां से रोम केवल 245 मील की दूरी पर ही है। अपने अनुपम फूलों के नाम पर ही इस शहर का नाम फूलों की नगरी यानि फ्लोरैन्स पड़ा।
14 वीं सदी से ये संसार के महत्वपूर्ण कला केन्द्रों में अग्रवर्ती रहा है। वास्तुकार बू्रनेलैस्की एवं दोनातैलो, चित्राकार जिओटो, मैसेशियों, फ्रिलिपोलिप्पी, लिओनार्डडा, विन्सी, माइकेल एंजलो, प्रसिद्ध कवि डान्टे, खगोलज्ञ गैलेलियों, जैसे भारी भरकम नाम इस शहर के नाम से जुड़े हैं। शहर के बीचों बीच सफेद हरे रंग से पुते दीक्षाघर के सामने ही था डथूमो (धर्मपीठ) इसका शानदार गुम्बज देखने के काबिल है। इसी के समीप सफेद-लाल-हरे पत्थर से बना वह प्रसिद्ध घण्टाघर जिसे जिओटो ने बनाया था। चर्च के बाहर ही सेंट माइकेल की प्रतिमा थी जिसे दोनो तैलों ने बनाया था। न जाने कितनी उत्कृष्ठ प्रतिमायें, उतने ही प्रतिष्ठित कलाकारों द्वारा निर्मित, जिनके नामों का उच्चारण करते जीभ में बांयटा आ जाए।
किधर भी निकल जाइए, इमारतें, गिरजाघर, बोलोनिया से कहीं बड़े, कहीं प्रभावशाली। वास्तुकला, चित्राकला, हर कला अपनी चरमसीमा पर। नहरों पर बने पुल, पुलों पर लगे छोटे-छोटे बाजार और बाजारों में घूमते सैलानी, मोल भाव करते हुए। पुराना पुल (पांटे बोचियो) उत्तम सेतुओं में से एक हैं। अधिकतर जौहरियों की दुकानें हैं यहां, चमचमाते गहरों और कीमती रत्न-मणि से भरी। इक्का-दुक्का अफ्रीकी भी पटरी पर सस्ता माल बेच रहे थे। पुलिस की भनक लगते ही वे ऐसे गायब हुए जैसे गधे के सिर से सिंग। सैलानी काफी थे किंतु एशियन्स न के बराबर। अमेरीकी पर्यटक ही धड़ाधड़ खरीदारी में लगे थे। हर चीज इतनी महंगी थी कि हमने मित्रों व सम्बन्धियों के लिए उपहार भी नहीं खरीदे। वैनिस में देखेंगे।
मठों, चर्चो और महलों की दीवारें चित्राकला से अटी पड़ी हैं। फरा एंजलिकों ने तो मठ के हर हिस्से को चित्रों से भर दिया था ताकि हर मठवासी जहां भी प्रार्थना कर रहा हो, इन चित्रों को देखे और बगैर न रह पाये।
मैडिकी महल की दीवारों पर गोजोली द्वारा बनाया गया भित्ति चित्रा अत्यंत मनमोहक था। इसमें ईसा के जन्म के समय मैगी-जुलूस चित्रित है (उत्तर से आए तीन बुद्धिमान पुरुष भेटें ले जा रहे हैं)।
सैन लोरेन्जों नाम चर्च में माइकेल एंजलों द्वारा बनाई गई उत्कृष्ट प्रतिमायें हैं।
फ्लोरैन्स की कला-दीर्घाएं शानदार संकलनों से भरी पड़ी है। उफ्रीजी, पित्ती प्लेस और बारगेल्लो संग्रहालय देखने योग्य हैं। हम केवल उफ्रीजी ही जा पाये। 10,000 लीरे प्रति व्यक्ति टिकेट लेकर जापानियों के समूहों से भरी कतार में शैली तो धैर्य खो बैठी थी। शिल्पत्थ केवल तीसरी मंजिल पर ही थे। नीचे की दो मंजिलों पर मूर्तियों और चित्रों पर मरम्मत का काम चल रहा था। उफ्रीजी में केवल विश्व प्रसिद्ध पुरातन प्रतिमाओं और चित्रों को ही स्थान मिल पाया है। अधिकतर चित्रा और प्रतिमायें यीशू से संबंधित थीं। कंपधे पर सलीब लिए ईसा मसीह सलीब पर चढ़े, अत्याचार खून से लथपथ चित्रों में हम दोनों को ही खास शौक न था जो हम छत पर बने बार में जा बैठे। भीनी-भीनी बयार बह रही थी। शहर की सारी इमारतें यहां से साफ नज़र आ रही थीं।
हमारे से अगली मेज़ पर ही एक बना ठना युवक बैठा था गहरी हरी आंखों से मैच करता जैकेट पहने शैली ने मेरा ध्यान उसके बायें हाथ में पहले चांदी के कड़े की ओर दिलायसा जिस पर संस्कृत और हिन्दी में कुछ लिखा था। हम एकाएक चुप हो गए कि कहीं उसे हिंदी न आती हो। विदेशों में हिन्दी बोलने वाले विचित्रा लोग विचित्रा स्थितियों में टकरा जाते हैं। अन्यथा विदेशों में मुस्करा के गलियां भी देते रहो, किसी को शक भी नहीं होता।
वापिस आते समय इतने आईसक्रीम खाई। यहां एम्बूलैंस या पुलिस की गाड़ी का आना असाधारण होगा। तभी तो जैसे ही एक एम्बूलैंस आईसक्रीम पार्लर से गुजरी, लोग बा सब काम छोड़कर बाहर की ओर लपके। हम शांति से बैठे रहे, लंदन में तो जब देखों तब एम्बूलैन्स या पुलिस की चीखती घंटियां सुनाई देती रहती है।
यहां पर लेस का काम मशहूर है पर कीमतें आसमान छूती हैं। अभी तक हम केवल उफ्रीजी से एक किताब भर खरीद पाये थे। बेटे के लिए ड्यूटी फ्री से चाकलेट लेना तय रहा। बोतल में बने जहाज़ आदि शीशे का काम यहां से सार भर से भेजा जाता है। किंतु लंदन में यहां से संस्ता मिल जाएगा, जाने कैसे।
आज रात खाने के लिए हमने टैटोरिया चुना जहां केवल दो वृद्ध पुरुष सर्व कर रहे थे। 25,000 लीरे प्रति व्यक्ति का भोजन था। हमने पालक और मीट से भरे क्रैप (गुजिया), चिली कानकार्नी और स्पैधैटी बोलिनेज चुने जो स्वादिष्ट थे। शराब में डुबोकर रखे गए बैंगन के टुकड़ों को तलकर उबली सब्जियों और भुने आलुओं के साथ पेश किया गया था जो मुझे अच्छा सम्मिश्रण लगा। यहां की लैमनेड में ताज़ा नींबू का स्वाद था शैली ने मीठे में आइसक्रीम पैने लिया और मैंने केवल एक नाशपाती।
होटल से निकले तो एकाएक अंधेरा हो गया था। गलियों की बत्तियां बंद थी। डर लग रहा था। तेज़ कदमों से हम होटल पहुंचे, मैनेजर से सुबह जगाने के लिए कहा, घर फोन किया और सो गए। सोने से पहले हमने बीसियों चैनल देखे किंतु अंग्रेजी में कहीं कुद न था। डब की गई अमेरिकन और जापानी फिल्में, सैक्स प्रदर्शन और मजमा लगाकर चुटकुले सुनाना शायद यहां का मनोरंजन था।
यहां भी अंग्रेजी के प्रति विदेशियों की चिढ़ जैसे कि फ्रांस, स्वीडन, डेनमार्क या नार्वे में महसूस की थी। अंग्रेेजी से सभी खीझते हैं न जाने क्यों, बोर होकर सो गए।
अगली सुबह, जैसी आशंका थी, मैंनेजर ने हमें नहीं जगाया। वह तो अच्छा हुआ कि मैं तकिये से कहकर सोई थी और समय पर जाग गई।
तैयार होकर हम फ्लोरैन्स स्टेशन पहुंचे, पैदल ही। वैनिस के लिए गाड़ी में बैठे तो दिल बैठ रहा था, मौसम का मिजाज नर्म था।
वैनिस (वैनिजिया)
फ्लोरैन्स रेलवे-स्टेशन पहुंचे तो एक इतालवी वृद्ध जोड़ा हमारी आरक्षित सीटों पर विराजमान था। हमने अपने टिकेट दिखाये तो वृद्ध सज्जन चिल्लाने लगे। वृद्धा सौम्य सी समझने का प्रयत्न कर रही थीं। हम चुपचाप उनके सामने की खाली सीटों पर बैठ गये। वे सज्जन अब भी क्रुद्ध थे और शैली उन्हें समझाने में लगी थी। वे उठे और अगले डिब्बे में जा बैठे पर उनकी आवाज हमें अब भी सुनाई दे रही थी। मुझे लगा जेसे कह रहे हों कि विदेशियों को इतालवी गाड़ियों में सीटें आरक्षित करने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। मेरी गुलाम मानसिकता, संकोच या कुछ और। सुबह जो झिकझिक शुरू हुई, सारा दिन बर्बाद होने लगा। बारिश शुरू हो चुकी थी।
जब वैनिस स्टेशन पर उतरे तो लगा एक धंुधली सी चाद से मानो पूरा शहर ढक गया था। लोकर में अपना सामान जमा कर हम बिना समय व्यर्थ किए फैरी में जा बैठे। “मम्मी आपने वैनिस जैसा कुछ नहीं देखा होगा।” शैली हाल ही में वैनिस आ चुकी थी। कुछ ठीक से दिखता तो समर्थन अवश्य करती पर अभी तो ऊपर पानी, नीचे पानी, चारों ओर पानी ही पानी था। संसार के सबसे खूबसूरत शहरों में से एक वैनिस पानी में नहा रहा था। मोटर आदि वर्जित है यहां। 290 नहरों के जरिये यातायात यहां केवल नौकाओं द्वारा संभव है। ढाई मील लंबा नदी-पथ वैनिस को मुख्य इटली से जोड़ता है। 120 द्वीपों के ऊपर बना वैनिस मानों समुद्र से जन्मा हो।
जगह-जगह रूकती महल-चर्च और आकर्षक भवन उद्घाटित करती टेढ़ी-मेढ़ी ग्रैड-कैनाल से गुज़र रही थी हमारी फैरी। वैनिस के प्रसिद्ध काले गांडालास बारिश की वजह से मांद से भी न निकल पाये थे और न ही हमें इस नौ मीटर लंबी इंद्रधनुषी समतल नौका में बैठने का सौभाग्य प्राप्त हो सका था।
पंद्रहवीं शताब्दी के शानदार स्वर्ण महल को देखा तो लगा सपना देख रहे थे। इसकी चटकीली साज-सज्जा देख सभी सैलानी आश्चर्यचकित रह गये।
वैनिस के चार सौ पुलों में रियालटों ब्रिज का अपना विशेष स्थान है। पुल के दोनों ओर नन्हीं-नन्हीं दुकानें हैं। वैनिस के कला-भवन के बाद ही सान्ता मारिया चच का गुम्बज नजर में तैर जाता है। यह सोलहवीं सदी में निर्मित हुआ था। अब हम खुले समुद्र में आ पहुंचे थे और यहीं से वैनिस का सबसे खूबसूरत नजारा दिखा डयूकल-महल जहां वैनिस के प्रधान रहा करते थे। गुलाबी और मोतिया रंग के पत्थरों से बना ये महल सभी को आकर्षित कर गया। शानदान कमरों की छतगीरी पर की गई चित्राकला बस देखने योग्य है।
डयूकल महल से लगा हुआ है। “ब्रिज ऑफ साईस” जिस पर से कैदियों को पुरानी जेल ले जायसा जाता था। हमने भी कई आहें सुनी यहां-सैलानिों की जो बारिश को कोस रहे थे। पास में ही थी लीडो नामक लोकप्रिय सैरगाह। एक चौड़ा रेतीला समुद्र तट किंतु आज कोई भी उद्यत न था वहां उतरने के लिए।
सेंट मार्क चौक में जब हम उतरे तो सबसे पहले 20,000 लीरे की दो छतरियां खरीदी जो आधा घंटा भी न टिकी। दुकानदार ने वापिस लेने से साफ इंकार कर दिया। पतली-पतली गलियों में या तो हम निकल पाते या हमारी छतरियां। अपनी निराशा एक दूसरे को धीरज बंधाते, गीले-जूतों-मोजों में हमने काफी कुछ देख डाला था।
पांच गुम्बद वाले प्रसिद्ध चर्च का वृहत अंधेरा भीतरी भाग रंग-बिरंगे संगमरमर से बना था और पच्चीकारी से भरा था। चर्च का वेदी-पट सोने और रत्नमणि से जड़ा था। तीन तरफ से आच्छादित मार्ग प्रतिष्ठित भवनों और अल्पाहार गृहों से भरा था। लोग बाग यहां घंटों बतियाते हैं और वाद्यवृन्द का आनंद लेते हैं 320 फीट ऊंचा घंटाघर भी इसी आंगन में है। वेनिस का सबसे व्यस्त बाजार दी मरसीरिया भी यहां से शुरू होता है। यहां की वीथिकाएं प्रायः कैम्पी नामक छोटे से आंगन में आ मिलती हैं, जहां बीचों बीच पत्थर की सीट बनी होती है, जहां बच्चे खेलते रहते हैं, किंतु आज सन्नाटा है। प्रायः सभी गलियां छोटे-बड़े चर्चो से भरी है।
वैनिस के टापुओं में प्रसिद्ध है मुरानों और बुरानों। मुरानों शीशे के काम के लिए और मछुआरों का घर। बुरानों प्रसिद्ध है लेस के लिए। टारसैलों टापू कभी वैनिस का प्रतिद्वन्दी था किंतु आज एक शांत गांव भर रह गया है। सब कुछ इतना मंहगा था कि हमारी तो हिम्मत ही नहीं हुई कुछ खरीदने की। अमेरीकी पर्यटक खरीदने में खटाखट लगे थे। वैनिस की आय पर्यटकों पर ही निर्भर करती है।
हमारी बदकिस्मती हमारे साथ इस टैªटोरिया आ पहुंची थी। इतना खराब खाना हमारे जीवन में कभी नहीं खाया था। शैली ने अपना क्रोध बैरे पर निकाला। बासठ हजार लीरे देकर हम भूखे प्यासे स्टेशन आएं और कॉफी और कोसों से अपनी भूख मिटाई। इस रैस्टरां का नाम था गीगी वे किसी फ्रीटोलिन, कोई वहां कभी भूल कर भी न जाए। मैं तो कहूंगी कि आलू-पूरी लेकर ही जाएं।
39,000 लीरे के सस्ते जूते खरीदे और स्टेशन के विश्राम गृह में स्वयं को सुखाकर जान में जान आई।
छोटे से वैनिस में चौतीस संग्रहालय है और आठ नाट्यशालाएं। कम से कम 10-15 दिन रहें तब कहीं जाकर सब कुछ देख पायें। ग्लास-ब्लोइंग कारखाने मंें पहली बार देखी किम कैसे एक शीशे की बोतल के अंदर पानी का जहाज बनाया जाता है। खरीदने का मन था किंतु जेबे करीब-करीब खाली हो चुकी थी और अभी वापिस बोलोनिया पहुंचना था।
इटली में न केवल दुकानों, होटलों और भवनों के नाम दो-दो हें बल्कि लोगों को भी वे नामों से जाना जाता है। इतालवी में कुछ और हम अपना होटल अपोलो ढंूढ रहे थे तो यही दुविधा सामने आई थी। इतालवी में उसे एलबर्गो कहते हैं।
रात को नौ बजे हम वापिस बोलोनिया पहुंचे तो लगा अपने घर आ गए हों। इस बार कमरा मिलने में केाई कठिनाई नहीं हुई क्योंकि मैंनेजर जो रात की ड्यूटी पर था न केवल अंग्रेजी जानता था, भारत का भी प्रशंसक था। हम दोनों घोड़े बेचकर जो सोये, सुबह नौ बजे उठे। झटपट तैयार होकर हम एक रैस्तरां में नाश्ता करने बैठे ही थे कि एक वृद्ध सज्जन हमसे बतियाने लगे। हम दोनों का एक फोटो भी लिया। हमने शिष्टाचार वश उनसे पूछा कि वह क्या कभी भारत गए थे। वह बोले हां पिछले जन्म में। बंगलौर और अन्य भारतीय शहरों के विषय मे ंउनकी जानकारी हमें स्तंभित कर गई। इनकी पत्नी व बेटा बोलोनिया के स्टेशन पर फटे बम वाले हादसे में मारे गए थे, वह स्वयं घायल हुए थे। पत्नी और बेटे के टुकड़े होते देखा था, अपनी आंखों से। बाद में प्लास्टिक सर्जरी से इनका चेहरा ठीक हो गया था किंतु बेटी इस हादसे से पागल हो गई थी इन्होंने हमें अखबार की कटिंग्स भी दिखाई। अपना नाम इन्होंने जीनो बताया। जिस रेस्तरां में हम बैठे थे उसका नाम ‘पीनो’ था। इतालवी के प्रारूप या जुड़वा शब्द होते होंगे। किससे पूछें। शोेध के लिए दुबारा आना तय रहा। अगली बार मौसम विभाग का पुर्वानुमान लिए बगैर इटली में कदम नहीं रखेंगे।
विमान में बैठने से पूर्व मैंने पाया कि मेरी कीमती घड़ी गायब थी। कैसे, कब कहां गिरी, जाना ही नहीं। विदा लेते समय उन वृद्ध सज्जन ने मेरा बायां हाथ चूमा था। शैली को झिझकते हुए अपनी दुविधा बताई तो वह बोली, “डोन्ट बी सिल्ली मम्मी।”
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