मायाजाल

– दिव्या माथुर

सुबह के 6 भी नहीं बजे थे कि हम घर से निकल पड़े। बेटे ने कार की सीट को गर्म कर दिया था पर फिर भी मुझे काफ़ी ठंड लग रही थी। अल्लसुबह, अच्छी तरह से नहाने और फिर गरमाए हुए घर से एकदम ठंड में बाहर निकल आने के कारण मेरी नाक बहने लगी। 

‘मम्मी, कहीं आपको ज़ुकाम तो नहीं हो गया, ऑपरेशन कैंसिल न करना पड़ जाए?’  मेरी बेटी ने आशंका प्रकट की। 

‘हॉस्पिटल पहुँचते ही मम्मी का पूरा चेक-अप एक बार फिर से होगा, ज़रा सी भी गड़बड़ निकली तो ऑपरेशन नहीं कर सकते,’ बेटे ने वस्तुस्थिति से अवगत करवाया। यूं तो डॉक्टर्स ने ये सब बातें हमें कई बार बताई हैं,  पचासियों दस्तावेज़ दिए हैं, हमारे हस्ताक्षर लिए हैं, पर फिर भी दसियों आक्षांकाएं हम सभी को घेरे रहती हैं; जिनसे निजात पाना आसान नहीं।

घर से निकलने के पहले, मैंने अपने घर को, बच्चों को, पोती को, हरी भरी ख़ूबसूरत प्रकृति को, आसमान आदि को अच्छे से आत्मसात कर लिया है; जिन्हें शायद मैं दोबारा न देख पाऊं।

‘मैं बिलकुल ठीक हूँ,’ मैंने मुस्कुराते हुए उन्हें तसल्ली दी। मेरी ख़ामोशी उन्हें हमेशा विचलित करती है, वे पूछते रहते हैं कि मैं क्या सोच रही हूँ। मेरे दिमाग़ में बहुत कुछ चल रहा है, जिसे व्यक्त करना असंभव है। ख़ुश हूँ कि बच्चे साथ हैं, जिनके लिए मैंने अपने प्रेमरहित जीवन में बहुत पापड़ बेले हैं; वे आज मेरी कल्पना से कहीं अधिक सक्षम हैं, सबसे बड़ी बात कि वे दुःख की घड़ी में मेरे साथ हैं।  

कुछ ही समय बाद मेरा 12-घंटे का लंबा ऑपरेशन तय है, जिसके लिए पांच विशिष्ट सर्जन्स की टीम हैरो में स्थित एक बड़े हॉस्पिटल में इकट्ठी हो रही होगी और मैं भी तैयार हूँ; मुझे कोई ख़ास घबराहट नहीं हो रही जबकि होनी चाहिए; जैसे बच्चे और दोस्त कहा करते हैं ; मैं सचमुच बहुत अजीब हूँ। ख़ैर, जीवन में पहले भी दो बार मेरा मौत से आमना-सामना हो चुका है; ड्रिल जानती हूँ, इसलिए आश्वस्त हूँ।  

बचपन में जब मैं अपने दादा-दादी को अपने पूर्व जन्म की बातें बताती तो वे मुझे यह कह कर चुप करा देते थे कि यह अपशुकन है।  उन धुंधली पड़ती यादों की परछाइयाँ आज भी मेरे मन-मस्तिष्क से नहीं गईं। लोग कहते हैं कि ये सब दिमाग़ की ख़ुराफ़ाते हैं, और कुछ नहीं। कुछ का कहना है कि यह सब ‘पावर ऑफ़ सजैशन’ का कमाल है।  भला इतनी छोटी उम्र में कब, कैसे और किसने मेरे दिमाग़ में ऐसे रंग-बिरंगे दृश्य भर दिए होंगे?  जिस तन लागे सो तन जाने; मैं ऊपरी तौर पर उनके तर्क को स्वीकार कर लेती हूँ क्योंकि प्रमाण के अभाव में ऐसे तर्कों को अस्वीकार करना राई को पहाड़ बनाना है। 

लगभग तीन साल पहले, जब पहली बार मैक्सिलोफैशियल-विशेषज्ञ ने हमें बताया था कि मेरे हलक़ में कैंसर है, जो गले तक फ़ैल चुका है और इसका ऑपरेशन जल्दी से जल्दी करना होगा। उसने बड़े विस्तार और स्पष्टता से हमें बताया था कि मेरे चेहरे, गले और हाथ को कहाँ-कहाँ से और कितना-कितना काटा जाएगा, कितना और कैसा रिस्क है, मौत की क्या संभावना है इत्यादि।  बेटी इतनी हिल गयी थी कि उसके लिए बोलना असंभव था, उसने अपने आँखों में आंसू रोक रखे थे; अगर मैं कमज़ोर पड़ी तो इसका क्या होगा। मैं चुपचाप सुनती रही जैसे कि मेरी नहीं, किसी और के बारे में बात हो रही थी।  डॉक्टर हैरान था कि रोने-धोने के बजाय मैं इतनी शांत कैसे थी। 

‘आप स्थिति की गंभीरता को समझ रही हैं न,’ उसने अचम्भे से पूछा और मैंने हां में सिर हिला दिया। प्रारब्ध में मेरा अडिग विश्वास ही शायद इस संतुष्टि का कारण हो कि मैं किसी भी परिस्थिति में ढह नहीं जाती।

अस्पताल में पहुँचते ही, टेस्ट्स शुरू हो गए, बच्चे मुझे चूम कर बाहर जा खड़े हुए; मैंने उनसे अनुरोध किया कि वे अब घर चले जाएं क्योंकि कल सुबह से पहले तो मुझे होश आने वाला नहीं।  उन्होंने हामी में सिर हिला दिए पर जब भी मेरी नज़र शीशे से बाहर गयी, वे वहीं बैठे थे। 

नर्स मुझसे पचासियों प्रश्न पूछे चली जा रही थी; मैं किस करवट सोती हूँ, कितना मोटा और पतला तकिया इस्तमाल करती हूँ, ऑपरेशन के दौरान क्या मैं अपने आराध्य देवता की छोटी सी मूर्ती या माला अपने सिरहाने रखना चाहती हूँ, इत्यादि।  मेरे चेहरे की किसी अवांछित हरकत को संभालने के लिए खड़िया के विशेष ब्लॉक्स अग्रिम रूप से बनवा लिए गए थे, ऑपरेशन-टेबल पर लेटते ही जिन्हें फिट कर दिया गया था, बड़ी मात्रा में एनैस्थीसिया के प्रबंधन के लिए एक विशेषज्ञ मौजूद था, ऑपरेशन थिएटर के बाहर जिसने मुझसे दुनिया भर के सवाल पूछे थे। जब मुझे स्ट्रेचर पर लिटा कर ऑपरेशन-थिएटर में ले जाया जा रहा था तो मुझे छत पर लगी ट्यूब-लाइट्स तेज़ी से भागती हुई नज़र आईं थीं।

शायद मेरा ऑपरेशन हो चुका होगा; पर मैं आश्वस्त नहीं थी।  शायद न हुआ हो; कैसे पता लगे? दीवार पर लगी घड़ी से मैं अंदाज़ा नहीं लगा पाती; कभी बारह और कभी चौबीस घंटे आगे पीछे हो जाती है।  कमरे के बाहर शायद एक मीटिंग चल रही है, हरे और नीले गाउन पहने बहुत से डॉक्टर्स और कुछ अन्य लोग गोल दायरे में खड़े हैं और बहस कर रहे हैं। अजीब बात यह है कि मैं भी उनमें शामिल हूँ पर जैसे एक सिकुड़ी हुई प्रतिछाया के रूप में, छत पर लगी ट्यूब लाइट सिर्फ़ मुझे ही आलोकित नहीं कर पा रही। अधिकतर को तो पहचानती हूँ, पर मेरा अपना डॉक्टर ग़ायब है जो इस मुहिम का इंचार्ज भी है। उसकी सहायक एक खूबसूरत युवती डॉक्टर, कैंसर विशेषज्ञ, शल्य-चिकित्सक और एनेस्थेटिस्ट आदि; इन सबसे बातचीत कर चुकी हूँ।    

‘इस ऑपरेशन की ज़रुरत ही नहीं थी,’ एक ने कहा तो अन्य दो ने असहमति दिखाई। 

‘ऐसा आप किस बिना पर कह सकते हैं?’ सहायक डॉक्टर ने पूछा। लगा कि अधिकतर लोग कुछ भी कहने से क़तरा रहे थे। 

‘हम चाहें तो इसे ‘इंडस्ट्रियल हैज़र्ड’ घोषित किया जा सकता है, इसमें हम सबका ही फ़ायदा है,’  एक दूसरे ने कहा जो डॉक्टर नहीं है पर इसे मैंने पहले की परामर्श-बैठकों में कभी नहीं देखा; इन बैठकों में डॉक्टरों और नर्सों के अलावा, डाइटिशियंस, भौतिक चिकित्सक और वाक्-चिकित्स्क आदि, सब एक जगह रहते हैं।  

‘मैं अपने इन चार्ज के निर्णय को बिलकुल उचित मानती हूँ, सहायक डॉक्टर बोली और बहस गर्म होने लगी। 

‘ठीक है तो वोट ले लेते हैं,’ अस्पताल के वरिष्ठ डॉक्टर, जो इस अस्पताल का मुख्य मैक्सिलोफ़ेशल सर्जन भी है, ने कहा। न जाने क्यों, मेरे अपने मैक्सिलोफ़ेशल सर्जन से अधिक मेरा इस बड़ी उम्र के गोरे गोल मटोल सर्जन पर अधिक विश्वास है। काश कि यह मेरे ऑपरेशन का इंचार्ज होता।

कुछ ने झिझकते हुए हाथ खड़े किए, कुछ ने वोटिंग में भाग ही नहीं लिया। मैंने अपना हाथ नहीं उठाया; वे शायद मुझे देख भी नहीं पा रहे थे;  मेरा वोट काउंट नहीं हुआ। केवल एक वोट से सहायक डॉक्टर के हक़ में फ़ैसला हो गया यानि कि ऑपरेशन करने का निर्णय ठीक था। 

पर मामला क्या था? क्या सचमुच मेरे ऑपरेशन की ज़रुरत नहीं थी।  शायद मुझे काटने पीटने के बाद वे जान पाए कि मुझे कैंसर था ही नहीं।  डॉक्टर्स की मीटिंग के दौरान, मुझे  चिकित्सा सम्बन्धी शब्दावली अच्छी तरह से समझ आ रही थी; मैंने स्वयं एक बड़े अस्पताल में पंद्रह लम्बे वर्ष वरिष्ठ सर्जन्स के साथ काम किया है पर कुछ ही देर बाद, मैं मीटिंग्स में हुई बातों को ठीक से याद नहीं कर पा रही थी। जाने मुझे सुबह तक मुझे कुछ भी याद न रहे; मैं जल्दी से इसे किसी को बताना चाहती थी; लिख लेना चाहती थी।    

जिस ऑपरेशन-थिएटर में मैं थी, वो दो आईडेंटिकल हिस्सों में बंटा था, एक में होता है वो रोगी जिसका ऑपरेशन होने को है और एक में वो जिसका हाल ही में चुका है, ताक़ि डॉक्टर्स दोनों पर ध्यान रख सकें।  उत्तम प्रबंधन का आधुनिक उदाहरण – समय और धन दोनों की बचत।  इस तरह, आजकल हॉस्पिटल-मैनेजमेंट डॉक्टर्स और नर्सेस का पानी तक निचोड़ लेते हैं। 

मेरे सामने वाले हिस्से में एक बूढ़ी पारसी औरत थी, जिसके दिमाग़ में ट्यूमर था, उसके बच निकलने के चान्सेस पांच प्रतिशत थे। दो दिन पहले ही ऑपरेशन के पहले एक आख़िरी परामर्श के लिए यह वृद्धा और मैं एक ही वेटिंग रूम में बैठे डॉक्टर्स का इंतज़ार कर रहे थे, उसके बहुत से रिश्तेदार आपस में उसके ऑपरेशन के बाद बच जाने की संभावना के विषय में बातें कर रहे थे और उन्हीं में से एक ने यह भी बताया कि वृद्धा ऑपरेशन के पहले अंतिम संस्कार की रस्में अपने जीते जी निपटा लेना चाहती थी।  शायद पारसियों में यह रिवाज़ हो क्योंकि उनमें से किसी ने इस बात पर हैरानी प्रकट करने की बजाय अपनी सहमति में अपने सिर हिलाए थे। 

जीते जी अपनी मौत का जश्न मना लेना मुझे एक बेहतरीन आईडिया लगा। काश कि मैं ऐसा कर सकती! हालांकि तैयारी तो मैंने भी की है, अपने लैपटॉप पर मैंने सब लिख दिया है – ताबूत को किन फूलों से सजाया सजाएगा, अंतिम संस्कार के वक्त कौन सा संगीत बजाया जाएगा, कौन मंत्रोचारण करेगा, मातमियों को अल्पाहार में स्नैक्स क्या होंगे और कौन सी शराब, इत्यादि। यह सब मुझे अपने सामने कर लेना चाहिए था; एक रिहर्सल ही हो जाती।     

ख़ैर, ऑपरेशन के दौरान, मैं उस महिला के बदन को देख सकती थी पर उसका चेहरा नहीं, क्योंकि डॉक्टर्स उसे घेरे खड़े थे। उसके पलंग के बाईं और एक बड़ा सा टीवी लगा था जिस पर निर्देश बदल रहे थे, जैसे ही डॉक्टर्स एक क्रिया पूरी करते, दूसरा निर्देश आ जाता; ऑपरेशन के दौरान ग़लती नहीं हो सकती; यह सब आधुनिक वैज्ञानिक प्रबंधन का कमाल है। दाईं ओर के टीवी मॉनिटर पर एक तालिका था जिस पर रोगी की नब्ज़, रक्तचाप, हृदयगति इत्यादि के अलावा दो खाने और थे, जिसमें लिखा था ‘लाइव’ और ‘मृत’। मैं चाह रही थी कि आराम करूँ पर मेरा ध्यान बार-बार उस तालिका पर चला जाता, यह देखने के लिए कि वह कितनी जीवित थी। अपनी बंद होती हुई आँखों को मैं फाड़-फाड़ कर देख रही थी कि एकाएक ऑपरेशन थिएटर के बाहर कुछ हलचल दिखाई दी, सफ़ेद लिबासों में लिपटे और सिर पर छोटी सी गोल टोपी लगाए बहुत से पारसी लोग खड़े थे। मुझे लगा कि वृद्धा शायद मरने वाली है।  ‘मृत’ वाले कॉलम में ‘98%’ दिखाई दे रहा था और जीवित में ‘2%’। 

न चाहते हुए भी मुझे तेज़ नींद आ रही थी पर मैं कुछ भी मिस नहीं करना चाहती थी। फिर आँख खुली तो देखा कि कमरे में एक पारसी नर्स भी आ गयी थी जो वृद्धा के बिस्तर के आसपास घूमते हुए जैसे कुछ रस्मों को अंजाम दे रही थी।  मुझे लगा कि जैसे उस वृद्धा को अपने दाईं ओर कोई खड़ा दिखाई दिया; जिसे देखते ही उसने नर्स को इशारा से बताया कि ‘वो आ गए हैं’; नर्स झट से एक उपहार जैसे सुन्दर डिब्बे को वृद्धा के पास ले गयी, जिसे वृद्धा ने छुआ, चूमा और उस अद्श्य उपस्थिति को भेंट कर दिया।  यह प्रक्रिया एक लम्बे समय तक चलती रही, न जाने कितने उपहार साइड-बोर्ड पर इकट्ठे हो गए थे।  मैं थक कर चूर थी, न जाने कब नींद आ गयी। 

आँख खुली तो देखा सामने वाला बिस्तर खाली था, मैंने नर्स से इशारे में पूछा कि क्या हुआ तो उसने मुझे अपनी बात लिखने के लिए एक काला बोर्ड और चाक दिया, जिस पर मैंने लिख कर पूछा कि क्या सामने वाली महिला की मृत्यु हो चुकी थी। मैंने देखा कि जो मैंने लिखा था, उसके स्पेल्लिंग्स ग़लत थी, मिटा कर मैंने फिर ठीक से लिखा पर फिर वही ग़लती। नर्स समझेगी कि शायद मैं कम पढ़ी लिखी थी।

‘नहीं तो, यह आईडिया तुम्हें कहाँ से आया, वो ठीक है और वार्ड में भेज दी गयी है,’ नर्स ने बताया पर उसके हावभाव कुछ और ही कह रहे थे।  वैसे भी मुझे इस नर्स पर बिलकुल भरोसा नहीं था। पूरी रात वह अपने मोबाइल पर अपने बॉय-फ्रेंड/पति से बतियाती रही थी, यह सब अस्पताल के नियमों के विरुद्ध है पर मैं उसकी शिकायत नहीं करना चाहती क्योंकि वह गर्भवती है।  

एक बार फिर मुझे होश आया तो सामने वाले हिस्से में एक टीवी इंटरवयू जैसा चल रहा था।  कमरे में तीन तरफ़ ट्रॉलीज़ पर रखे शटर वाले बड़े बड़े काले कैमरे लगे थे।  पहिएदार कुर्सी पर बैठी एक अपाहिज लड़की उपकरणों के शोर के बीच अपनी अक्षमता और ऑपरेशन के विषय में बता रही थी, उसके शरीर का मुझे केवल आधा हिस्सा ही दिखाई दे रहा था और कोशिश करने के बावजूद मैं उसका पूरा चेहरा नहीं देख पा रही थी। यह साक्षात्कार जैसे समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रहा था।  मैं अपनी नींद से लड़ते हुए इसे देखती रही।

मैं उस लड़की को पहचानने की ज़बरदस्त कोशिश कर रही थी; मैंने इसे कहीं देखा है पर कहाँ? मैंने अपनी निगाह उसके चेहरे पर गड़ा दी और कुछ ही देर बाद मुझे लगा कि कुर्सी पर बैठी हुई वो लड़की कोई और नहीं, मैं ही थी? क्या; मैं अपाहिज हो गई? किसी ने मुझे बताया था कि ऐसे समय में महामृत्युंजय मंत्र का जाप कारगर होता है, पर कोशिश करने पर भी मुझे उसका एक शब्द याद नहीं आया।  सोचा कि इस मंत्र से सम्बंधित देवता ही याद आ जाएं तो मंत्र भी ध्यान में आ जाएगा पर नहीं।  फिर याद कि बेटे ने मेरे तकिए के नीचे यह मंत्र एक कागज़ पर लिख कर रखा था।  निकाल कर पढ़ा तो कुछ शान्ति हुई पर जैसे ही मैं उसे वापिस तकिए के नीचे रखती, सब कुछ भूल जाती, इसी पशोपेश में जैसे सदियाँ गुज़र गईं। 

मेरे बांह में लगे कैथिटर में जब नर्स औषधियां उढ़ेल रही थी; मेरी नींद खुल गयी। मन हुआ कि उससे कहूँ कि इन ढेर सारी औषधियां डालने के मध्य एक मिनट का अंतर तो होना ही चाहिए।  इशारे से मैंने उसे बताया कि मुझे उल्टी आने वाली है पर वह मेरे शरीर में लगी ढेर सारी ट्यूब्स में उलझी थी; उसने दूसरी नर्स को इशारे से बुलाया जो एक तीसरी नर्स से किसी अहमं मुद्दे को लेकर वार्ता में लीन थी। ख़ैर, जब तक उल्टी-बरतन मुझ तक पहुँच पाता,  मेरा चेहरा, गला और सीना भीग चुके थे।  वमन से तरबतर मेरे नये हलक़, जो मेरी बांह से ली गयी मज्जा-तंत्रिकाओं से निर्मित हुआ था, को लगे इस धक्के का अंदाज़ा मेरे सिवा और किसी को नहीं हो सकता।  ग़ुस्से को क़ाबू रखने के अलावा मैं क्या कर सकती थी।  दोनों नर्सों ने मेरे अच्छे सफ़ाई कर दी और मैं शायद फिर सो गयी।

आँख खुली तो कमरे के एक कोने में मैट्रन और नर्स में गंभीर वार्ता चल रही थी। मैट्रन उसे बता रही थी कि ऑपरेशन थिएटर में उसके मोबाइल के उपयोग पर उसे नौकरी से निलंबित कर दिया गया था।  नर्स के अनुरोध पर कि उसे आज की ड्यूटी पूरी करने दी जाए, मैट्रन मान गया था।  उदास नर्स की आँखों में आंसू देख कर मेरा दिल पिघल गया।  मैंने तख़्ती पर उसे लिख कर दिया ‘ तुम्हें बहुत दुखी नहीं होना चाहिए क्योंकि जो होता है अच्छे के लिए ही होता है।’ जिसे पढ़ कर वह और परेशान और पशेमान सी दिखी। 

‘आपने ऐसा क्यों लिखा?’ कहते हुए वह बाहर चली गयी। अरे, मैं तो उसे तसल्ली देना चाहती थी; ऐसी हालत में उसे घंटो खड़े नहीं रहना चाहिए और जब बच्चा हो जाएगा, तब भी तो उसे नौकरी छोड़नी ही पड़ेगी। 

रात को आंधी, बारिश और तूफ़ान के बीच डॉक्टर्स और नर्सस अपने पानी से भीगे और चमकते हुए हरे और नीले गाउन्स संभाले ज़ॉम्बीज़ की तरह वार्ड में आ जा रहे थे। एक नर्स मेरे कथीटर में औषधियां उढ़ेले जा रही थी।  मैंने उसे थोड़ा रुकने के लिए इशारा किया पर जैसे उसने देखा ही नहीं।  मैंने डॉक्टर का ध्यान खींचा तो उसने मुझे अनदेखा कर दिया। मुझे कि वो नर्स जैसे मुझे मार देना चाहती है। उसे रोकने के लिए मैं हाथ-पांव मारने की कोशिश कर रही हूँ पर मैं हिल भी नहीं पाती। अंततः मैं यह सोच कर कि जो होगा ठीक होगा;  मैं आराम से सोने की चेष्टा करती हूँ; मुझे बहुत शान्ति मिलती है।

अगले दिन सुबह जब मेरी आँख खुली तो मुझे बेटा-बेटी और दामाद शीशे के उस पार दिखाई दिए, जो मुस्कुरा रहे थे पर उनके चेहरों पर पुता हुआ भय मुझे दिखाई दे रहा था; फिर देखा कि मेरी लुढ़कती हुई बेटी को जैसे दामाद संभाल रहा था। कोई मुझे बताए कि मेरा ऑपरेशन हो गया था या होने को था?  दीवार-घड़ी में शाम के साढ़े पांच बज रहे थे; बेटी बेटा और दामाद क्या आए भी थे; या वो मेरा स्वप्न था। फिर आँख खुली तो घड़ी वहीं की वहीं अटकी थी। ऐसा कैसे हो सकता है?  घड़ी रुक गयी है क्या?   

दस दिन के बाद जब मैंने पहली बार अपना चेहरा देखा तो समझ में आया कि बेटी चक्कर खाकर क्यों गिर पडी थी – पचासियों टांको/स्टेपल्स से जुड़ा, नाक-गले-सिर के पिछले भाग में नलियों से बिंधा, काले-नीले रंग के धब्बों से सुसज्जित, अपने चेहरे को देख कर मैं स्वयं स्तंभित रह गयी थी।  दाएं नथुने में एक छोटा सा पहिया फिट किया गया था जो मेरे ख़याल में सबसे भद्दा आभूषण था। एक मूविंग-स्टैंड से मेरी पट्टी की गयी बांह लटकी थी। यकायक फ्रैंकेंस्टाइन की याद आ गयी; मेरी पोती कहीं डर न जाए। 

‘इतना बहुत बुरा नहीं लग रहा, मम्मी, कुछ ही दिनों में जब ये नील और स्टेपल्स हट जाएंगे तो सब ठीक हो जाएगा,’  बेटी ने मुझे तसल्ली दी।

बेटे ने बताया कि जब-जब मुझे होश आता था, मैं तख़्ती पर बहुत सी बातें लिख कर उसे बताती रही थी, विशेष तौर पर थिएटर के बाहर हुई डॉक्टर्स की मीटिंग, पारसी वृद्धा, अपाहिज लड़की के इंटरव्यू और नर्स वाली घटनाओं के विषय में। चिंतित बेटे ने जब ये बातें डॉक्टर्स को बताईं तो उसने कहा कि ये सिर्फ़ ‘हैलुसिनेशन्स’ हैं जो शरीर में एनैस्थीसिया की भारी मात्रा से उपजती हैं।

क्या सचमुच? और अगर यह सच है तो ऑपरेशन थिएटर के बाहर हुई डॉक्टर्स की मीटिंग में मैं उस व्यक्ति को कैसे देख पाई जिसे मैंने पहले कभी नहीं देखा था, जिसने कहा था कि मेरा ऑपरेशन एक ‘इंडस्ट्रियल हैज़र्ड’ था? ऐसे ‘आउट ऑफ़ बॉडी एक्सपीरियंस’ से मैं दो बार पहले भी गुज़र चुकी थी जब मुझे लगा था कि कहीं छत पर मंडराते हुए मैं अपने ही शरीर को देख रही थी।  

बहुत दिनों के बाद जब मैंने उस व्यक्ति को आपत-वार्ड में देखा तो एक बार फिर उस पूरी मीटिंग का दृश्य मेरी आँखों के सामने घूमने लगा।

अब मुझे पूरा यक़ीन हो गया कि यह केवल मायाजाल नहीं था।

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निजी अनुभवों पर आधारित कहानी, अप्रकाशित।

22 जून 2020

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