हूक


लो कारी बदरिया आई घिर
इक हूक उठी हो माई फिर
कदम्ब पे कोयल आ बैठी
अब देगी कूक सुनाई फिर

आँगन में एक साये सा
लो दिखा वही हरजाई फिर
तन मन सिकोड़ कर बैठी हूँ
अब देखा दुःख सौदाई फिर

दीवारों से फोड़ रही है
मेरी ही परछाईं सिर
चाँद है चुप तारे गुमसुम
अब देगा कौन गवाही फिर

मेरे ही मन ने न सुनी
तो सुनेगा कौन दुहाई फिर
परदेसी की नज़र फिरी
तो कहाँ होगी सुनवाई फिर

भेजेगा वह प्यार ढेर
और ख़त में देगा सफ़ाई फिर
सांझ हुई है बाँझ मेरी
और रूह मेरी बौराई फिर

लो काली बदरिया आई घिर।

*****

– दिव्या माथुर

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