मेरा क्षितिज

कितने
बेतरतीब से टुकड़े
ज़हन की गलियों में
बिखरे हैं
ज़िंदगी के
हालात के
ख़यालात के
सवालात के

ज़र्रा ज़र्रा
जोड़ता हूँ
तरतीब से
लफ़्ज़ दर लफ़्ज़
क़ाफ़िया दर क़ाफ़िया
क़तरा दर क़तरा
हर शब्द लेकिन
अलग है
आकार में
प्रकार में
मायने में

मैंने
हर शब्द की
बंदिश में
ख़ुद को बाँधा
रफ़्ता रफ़्ता
मैं ख़ुद
शब्द बन गया
खो गया
किसी ग़ज़ल की
बहर में
तलाशता रहा
ख़ुद को
शब्दों के
रेगिस्तान में
किसी
मृगतृष्णा की तरह
मंज़िल को
किसी
क्षितिज से परे

हज़ारों कविताएँ
उमड़तीं हैं
इस क्षितिज की
सीमा के भीतर
लेकिन
किसी कविता को
कभी
काग़ज़ नहीं मिला
बस यूँ ही
दब गयीं
वक़्त की
कठोर, निष्ठुर
गर्त में
एहसास के बोझ तले
जीवन के
एहसान तले

ज़हन की
दीवारों से टकरातीं
बेतरतीब
दफ़्न हो गयीं
जीवन के रेगिस्तान में
मेरे ही अपने
क्षितिज में

*****

– पंकज शर्मा

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