
कवि अनिल शर्मा ‘जोशी’ की ‘नींद कहाँ है’ की समीक्षा
अनिल शर्मा ‘जोशी’ वैश्विक स्तर पर हिंदी भाषा और साहित्य जगत के जाने माने नाम हैं। भारत ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर उनके लेखन के प्रशंसक हैं। मैं विगत कुछ वर्षों से उनसे जुड़ा हूँ और मुझे उनका स्नेह हमेशा प्राप्त होता रहा है। दिल्ली प्रवास के दौरान उन्होंने अपना कविता संग्रह “नींद कहाँ है” भेंट किया जिसमें ब्रिटेन और भारत में लिखी उनकी प्रमुख कविताओं को संजोया गया है।
पहली उनकी कविताओं को सन्मुख सुनने का अवसर मुझे भोपाल में विश्व रंग 2022 के दौरान प्राप्त हुआ था। उन्होंने अपनी कविता “प्रश्न पूछती रोज जिन्दगी” जिसमें जीवन दर्शन और मनुजता के बहु-आयाम दृष्टिगोचर होते हैं जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया था इसलिए इस पुस्तक को पाना सुखद अनुभव रहा।
चार उप खण्डों में विभाजित इस संग्रह में कुल पैंतीस कविताएँ उसी तरह से चुन-चुनकर समाहित की गई हैं जैसे बगिया से खास फूल चुनकर देवों को अर्पण करने के लिए एक माला बनाई गई हो।
पहले खंड में लंदन में अपने कार्यकाल के दौरान उनके अनुभवों की एक झलक मिलती है। उनकी पहली कविता “भटका हुआ भविष्य” अप्रवासी भारतियों और उनकी संतति से जुड़े एक विडम्बना का सटीक चित्रण करती है। देश से निकल कर दुनिया जीतने वाले भारतवंशियों को वो अश्वमेध के घोड़े के समान देखते हैं जो वैसे तो विश्व विजयी हो जाता है लेकिन लौटकर अपनी मातृभूमि नहीं आ पाता।| शीर्ष कविता “नींद कहाँ है” अपने गाँव-घर ही नहीं अपितु देश को छोड़ जाने वालों के मन में उठते गुबार को सटीक बयान करती है – “रंग बिरंगी इस सुरंग में/ होगा यूँ घनघोर अँधेरा/ इसकी मुझको खबर नहीं थी” और साथ ही वे कहते हैं – “जिस भारत को ढूंढ रहो हो/ सात समुन्दर पार कहाँ है/ तुम हो जहाँ भारत वहाँ है”। इस खण्ड में उनकी अन्य कविताएँ लन्दन के जीवन के विविध आयामों को प्रस्तुत करती है जिनमें एक तरफ पूंजीवादी विकास की अंधी दौड़ है तो दूसरी तरफ जमीन से कट जाने दंस दिखाई देता है।
अगला खण्ड “अपनी दुनिया” है जिसमें कुल ग्यारह कवितायेँ हैं। इस खण्ड की पहली कविता “सीता को सोने का मृग चाहिए” मानव मन की दुर्बलता को बहुत सशक्त रूप में उल्लेखित करती है। वे लिखते हैं – “सोने का मृग सबको हरा सकता है” और आगे भाव है कि हम सभी को किसी ना किसी स्वर्ण मृग की चाह है और वही चाह हमें अकल्पनीय परिस्थितियों के भंवर में खींच ले जाती है। साहित्य जगत में व्याप्त सामंतवादी व्यवस्था पर चोट मारती रचना “हिंदी साहित्य के गब्बर सिंह” कविता में कटाक्ष को अलंकृत करने उनका हुनर मजबूती से साबित होता है। जहाँ एक और “माँ के हाथ का खाना” पाठक के मन को छू जाता है वहीं “अकड़ा हुआ बच्चा” जीवन के संघर्ष के बीच प्राथमिकताओं और उनके परिणाम को रेखांकित करती है। इस खंड की सभी कविताएं पाठक को संवेदनाओं की लहरों पर गोते लगवाती हैं।
तीसरा खंड “अनहद” अपने नाम के अनुरूप अनंत को समेटने का सफल प्रयास करती है। “बाल मजदूर” एक प्रासंगिक नवगीत होने के साथ इस विडंबना को उजागर करता है कि कैसे सात दशक के बाद भी भारत का बचपन विवशता की जंजीरों ने जकड़ रखा है। जहाँ एक ओर “कॉफी घर” आपको नुक्कड़-ठेलों के बयान वीरों की बातें सुनाती है तो “मैं ही अँधेरा, मैं ही रौशनी” आपको अपने भीतर झांकने पर विवश कर देगी। इस खंड में एक से बढ़कर एक गीत हैं जो पाठक को लंबे समय तक याद रहेंगे।
अंतिम खंड “कुछ यूँ भी” पुस्तक के समापन के साथ सच्चा न्याय करती कविताओं को समेटे है। इस खंड की हर कविता एक सवाल खड़ी करती है। जब वे लिखते हैं- “ये होंठ तो अपने हैं, पर किसकी जुबान है”, या “समय बहता दरिया, समय है समंदर/ कहाँ अब वो अकबर, कहाँ है सिकंदर” और फिर जब वे कहते हैं “पूछें न हम सवाल, मगर कब तलक-ए-दोस्त” तब पाठक के अन्तःकरण में एक प्रश्न उठ खड़ा होता है।
समग्र रूप से देखने पर पाठक कहीं-कहीं अतृप्त भी होता है जैसे “अहं को इतना तू न जगा” और “जैसे ही कुछ पंछी आए” आदि रचनाएँ पढ़ने का आनंद स्फुरित होते ही ओझल हो जाती हैं और इसके विपरीत “हिंदी साहित्य के गब्बर सिंह” और “क्या तुमने उसको देखा है” समकालीन काव्य शिल्प के हिसाब से कुछ लम्बी हैं। ये सभी रचनाएं भी पठनीय हैं लेकिन मेरे अनुभव से इनका प्रभाव वैसा ही बन पड़ा है जिस प्रकार कम शक्कर से खीर फीका हो जाता है और अधिक मीठा खीर भी होने से भी असहज होता है। एक बात और है जिस पर मैं ध्यान दिलाना चाहूंगा कि पुस्तक मुझे किसी भी ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर नहीं मिली परिणाम स्वरूप इसकी उपलब्धता पाठकों के लिए दिल्ली के क्षेत्र तक सीमित होकर रह जाती है।
अंततः इस पुस्तक की शान “सीता को सोने का मृग चाहिए” एक कालजयी रचना है और एक से बढ़कर शानदार गीत और गजलों से सजी ये कविता की फुलवारी निःसंदेह पठनीय है।
”मोर्चे पर” के बाद यह उनका दूसरा काव्य संग्रह है और मुझे आशा है कि पाठक का भरपूर प्रेम और उत्साहवर्धन मिलेगा और हमें उनके आगामी काव्य संग्रह की प्रतीक्षा है।

ISBN: 978-93-95310-66-6
लेखक: अनिल शर्मा ‘जोशी’
प्रकाशन: 2004, द्वितीय संस्करण: 2023
प्रकाशक: दिल्ली बुक सेंटर, नई दिल्ली
मुद्रक: आदर्श प्रिंटर्स, दिल्ली
मूल्य: १८० रुपये