
दस्तक
न सुने तो कोई क्या कीजे
दस्तक देने में हर्ज़ है क्या
हम खुशी खुशी भुगतेंगे इसे
जो मिट जाए वो मर्ज़ है क्या
दिल माँगा, जां हमने दी
ये छोटा मोटा क़र्ज़ है क्या
हमको तो कोई गिला नहीं
तुम ही जानो के फ़र्ज़ है क्या
हर सुबह को हाँ और शाम को ना
ये भी कोई तर्ज़ है क्या
कर लिया सर्द सीना अपना
बिन सुने हमारी अर्ज़ है क्या
ख़ामोश हो क्यों बतलाओ तो
दरख्वास्त हमारी दर्ज है क्या?
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– दिव्या माथुर