
कढ़ी
आज सुबह मैंने कढ़ी बनाई
छोटी छोटी गोल मटोल पकौड़ियां
यूं खदक रही थीं पतीले में ज्यूं फुदकते थे बच्चे बरसात से भीगे आंगन में
ऐसा आल्हादित था मन कि सारे मुहल्ले को दावत दे डालूं सोचा कि थोड़ी सी कढ़ी बेटे के घर भी दे आऊं
पर डरी कि
कहीं वह यह ये न सोचे
कि कढ़ी के बहाने
आ धमकी है मां बहु भी शायद व्यस्त हो सप्ताहांत के प्रपंचों में
टप्पावेयर के एक डिब्बे में
कढ़ी लिए मैं पहुंच ही गई घंटी बजाके उनके घर की मैं झिझकी
बहू ने दरवाज़ा खोला तो बुरी तरह मैं खिसिया गई
कढ़ी को अनदेखा कर सपाट आवाज़ में बोली बहू ’हम अभी अभी मैक्डोनाल्ड होकर आए हैं,’
पीछे खड़े पोता-पोती ने कुछ दिलचस्पी से पूछा
‘ग़्रैंड-मां, वाट हैव यू ब्रौट?’ (दादी-दादी क्या लाई हो?)
पर कढ़ी को देख
वे नाक-भौं सिखोड़े वापिस भीतर चले गए
बेटे ने अंदर से चिल्लाकर पूछा
‘हू इज़ इट, डार्लिंग?’
(प्रिय, दरवाज़े पर कौन है?)
‘मां कढ़ी लाई हैं.’
बहू ने झल्लाकर जवाब दिया
एक क्षण को लगा कि वह भागकर बाहर आएगा मेरे हाथ से कढ़ी का डिब्बा छीन
नदीदों की तरह उसे खाएगा
पर अंदर से कोई जवाब नहीं आया उसे तो कढ़ी बहुत पसंद थी आठ-दस पकौड़ियां तो वह मेरे तलते तलते ही फांक जाता था
हर बार चपत भी खाता था
पहुंच गई हूं वापिस घर मैं हाथी के से पांव लिए
अकड़ चुके हैं हाथ मेरे डिब्बे को पकड़े पकड़े
मन पर लगी भारी सांकल मैं खोल नहीं पाई खटपट सुनकर मेरी अफ़्रीकन पड़ोसन बाहर निकल आई उसके काले माथे पर लगी
लाल चमकती बिंदी ने
मुझमें कुछ ऊष्मा जगाई
पीछे से झांकते हुए
उसके लाड़ले बेटे जेसन ने हमेशा की तरह
मुझसे हाथ जोड़कर नमस्ते की और फिर मेरे हाथ से कढ़ी का डिब्बा लेकर बड़े अदब से वह अंग्रेज़ी में बोला, (आप बड़ी थकी दिखती हैं,
लाइए, इसे मैं आपके लिए ऊपर ले चलता हूं)
मेरी आंखें भर आईं रुंधे गले से मैं यह भर कह पाई (बेटे, यह तुम्हारे लिए ही है)
(क्या सचमुच? बड़ी अच्छी महक आ रही है, धन्यवाद)
(मां, क्या तुम मेरे लिए कुछ चपातियां बना दोगी?)
काली ने मुझसे चपातियां बनाना सीख लिया है
‘हाँ, ज़रूर मेरे प्रिय,
आप तो जानती ही हैं कि इसे चपातीज़ कितनी पसन्द हैं)
उनके काले चेहरों पर
फैली उजली चमक ने उबार लिया है आज मुझे।
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– दिव्या माथुर