कमीज़
कमरे की दीवार पर
खूँटी से झूलती कमीज़
मेरी अपनी पहचान है
गोकि मसक गयी है जगह -जगह से
पर वर्षों बाद भी उतरा नहीं है इसका कड़क रंग
बनिये की पुरानी उधारी
और महीने भर के खर्च को
दर-किनार कर
बड़ी तंगहाली में खरीदी थी मैने यह कमीज़
इसकी नीली धारियाँ
खूब फबीं भी मुझ पर
दोस्तों से मिलता तो अपनी कमीज़ को
उनकी कमीज़ से तौलता रहता
और हमेशा अपनी कमीज़ को बेजोड़ पाता
अक्सर हैरान रहता हूँ कि
मैं इस कमीज़ के इतना करीब क्यों हूँ
करीब हूँ तो इतना मोहग्रस्त क्यों हूँ
आख़िर क्यों इतने सालों तक
मैने इस कमीज़ को अपनी देह से अलग करके नहीं सोचा
फिर खुद को ही समझाता हूँ
कि छोड़ो कमीज़ ही तो है
यह देह तो नहीं हो सकती
पर कभी-कभी इसे खूँटी पर देखकर सिहर भी उठता हूँ
कि कहीं मेरी देह भी कमीज़ हुई तो!
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-राजीव श्रीवास्तव