परदेस

न तीज है, न त्यौहार है
परदेस में लगता सूना
सब संसार है
न सावन के झूले
न फूलों की बहार है
न आम की डाली पर
बैठ कोयल गाती मल्हार है
न लगते यहाँ तीज
मेले पर न डलते यहाँ
बागों में झूले
वो पुराने मायके के दिन
मुझे आज तक न भूलें
न आता है तीज पर सिंधारा
घेवर, फिरनी की सौग़ात
से भरा पिटारा
वो काँच की खनकती
हरी लाल चूड़ियाँ
अगली सुबह उठ कर
मेंहदी का गाढ़ा
रंग देखने की होड़
मैं सब आई पीछे
अम्मा तेरे घर में छोड़
अब न कह पाती हूँ
बाबा से ..कि अबके बरस
भेज भैया को बाबूल
सावन में लीजो बुलाए रे
राखी बांधने को अब
तरसते हैं हाथ मेरे
छूने को भैया की कलाई रे
पता नहीं था, परदेस में
आ कर इतना पड़ेगा
पछताना, दिल का
हाल किसी से न कह पाती हूँ
बिदेसी भाषा की पाती
मेरा दर्द समझ नहीं पाती है
अब फ़ोन पर करती हूँ
माँ बाबा से बातें

आशीर्वाद लेने को हाथ
भी उनके पैरो तक नहीं
हैं पहुँच पाते
अपनों से दूर होने का दर्द
मन को बहुत है तरसाता
काश एक बार माँ-बाबा
तुमसे मिलना हो पाता
तुमसे मिलना हो पाता

*****
-ऋतु शर्मा

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