बारिश का ख़त
बारिश को बाँध कर रोशनाई की जगह
भर लिया था दवात में
बस वही ख़त
तुम्हारी खिड़की पर
कोहरे से लिखा है मैंने
उसे धीरे से
आफताब के सामने खोल कर
बूँद बूँद पढ़ लेना
चलती हुई बूंदों को देखना
जुड़ते हुए सिरों को छूना
शाम की दस्तक पर जमते हुए
लव्जों को देखना
यकीं है मुझे
वो काँच के शीशे
इन बूंदों को सँभाल लेंगें
यकीं है मुझे वो काँच के शीशे
इन बूंदों को सँभाल लेंगें
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-पूनम चंद्रा ‘मनु’