सागर के तट पर
सागर की पारदर्शी देह पर थिरकती हैं
रहस्य और रोमांच से आह्लादित लहरें
रेतीली जमीन पर लिखती हैं
प्रेम की अमिट कहानियां…
समर्पित होने से ठीक पहले
आवेग से आती हैं
पुरजोर टकराती हैं
और टूटती हैं सागर के तट पर!
सीप-शंख, मूंगा-मोती छोड़कर किनारे
अतल गहराइयों में समा जाते हैं धारे
सागर फिर भर देता है अनूठी सौगातें
शोख, चंचला-सी इतराती
दर्प से दपदपाती
मदमाती लहरें
फिर-फिर उठती हैं
और टूटती हैं सागर के तट पर!
अनवरत जारी रहता है यह क्रम
सैलानियों के चले जाने के बाद भी
जब गुम हो जाती हैं आसपास की बत्तियां
मिट जाती हैं मिलन-बिछोह की निशानियां
तब लहरें करती हैं आत्मसात्
मधुर मिलन का आस्वाद
अकथ प्रेम का आह्लाद
और टूटती हैं सागर के तट पर!
धीरे-धीरे झरने लगता है आकाश
उतरने लगता है सागर के भीतर
दबे पांव आती है चांदनी
टांकती है चुंबन, पारती है गोदना
प्रेमी के नाम का लहरों की देह पर…
दूर क्षितिज पर गूंजती है शहनाई
लहरें भरती हैं अंगड़ाई
और टूटती हैं सागर के तट पर!
अतल और अनंत का मिलन
प्रकृति का अटूट समर्पण
करता है लहरों की गोद भराई
प्रेम आकार पाता है
गर्भस्थ शिशु-सा इठलाता है
लहरें बलिहारी जाती हैं
खुद पर इतराती हैं
और टूटती हैं सागर के तट पर!
मन के भीतर भी लहराता है सागर
उद्दाम इच्छाएं करती हैं अठखेलियां
एक के बाद दूसरी, अनंत पहेलियां
समय बहा लिए जाता है अपने संग
रेतीली जमीन पर लिखे प्रेम अनुबंध
अनुभूतियां, आसक्तियां…
वीतरागी हो जाती हैं लहरें
और टूटती हैं सागर के तट पर!
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– अलका सिन्हा