सिरहाने में रखी है किताब

कई दिनों तक पड़ी रहीं
मेरी पसंद की किताबें
मेरे सिरहाने
पढ़ती रही मैं उन्हें
किसी-किसी बहाने।

कभी नींद लाने की कोशिश में
तो कभी जाग जाने की खातिर
कभी खुदबुदाते विचारों को राह दिखाने
तो कभी अहसास को सहलाने
उनसे सुख-दुख बतिया लेती थी
अपना दिल बहला लेती थी

फिर किसी दिन
कमरा समेटने की गरज से
इन्हें उठाकर बुक शेल्फ में सजा दिया।
फिर बात तो कम ही होती मगर
शीशे से झांकती किताबें तो लगता
प्रवासी बच्चों ने हाल-चाल पूछा
मिलने का तकादा किया।

मगर धीरे-धीरे बढ़ने लगीं दूरियां
प्रवास में रहने की मजबूरियां
संवाद के प्रसंग घटने लगे
हम एक-दूसरे से कटने लगे
बच्चों को मिल गई
वहीं की नागरिकता
यहां बढ़ती रही रिक्तता…

एक दिन शेल्फ की किताबों ने पास बुलाया
आसान-सा रास्ता सुझाया
किताबें मुस्कराईं
मेरे हाथों तक चली आईं
पन्ना-दर-पन्ना जुड़ते गए अहसास
जितना वह आती गई पास।

प्रवास से लौट कर ये किताबें
फिर आ बैठी हैं मेरे सिरहाने
पढ़ती हूं मैं उन्हें
किसी-न-किसी बहाने।

*****

– अलका सिन्हा

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