स्त्रियाँ

स्त्रियाँ पागल रहती हैं-
किसी न किसी प्रतीक्षा में;
यही नहीं कि बाहर गये लोग कब लौटेंगे वापस
या कब कोई अतिथि दे देगा दस्तक द्वार पर
बल्कि स्त्रियाँ कुछ-कुछ पंछियों की तरह होती हैं
डर-डर कर खुश होती हुईं,
सहम-सहम कर चहचहाती हुईं,
बारिशों में भीगे पंख लिए उदास –
जोहती रहती हैं धूप;
जोहती हैं-मौसमी पौधों पर कब खिलेंगे फूल
खेतों में कब छींटे जायेंगे बीज.
कब पकेंगी फलियाँ;
दिनभर की थकी पथरायी स्त्रियाँ भी-
सोने से पहले ढूँढ़ ही लेती हैं-
कोई न कोई छूटा हुआ काम;
उनके आँसुओं के लिए कभी ख़त्म नहीं
होतीं-अवांछित ख़बरें
या, मुस्कुराने के लिए छोटी से छोटी वजह;
उन्हें स्वयं पता नहीं होता
कि प्रतिरोध के क्षणों में
कब वे चकोर की तरह निगलने लगती हैं अंगारे
और प्रेम में-
स्वाति की एक बूँद के लिए –
कब बन जाती हैं चातक!

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-राजीव श्रीवास्तव

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