अनुभूति

आह वेदने अश्रु चुरा तुम
आज हंस रही मादक हास
अरि खोजती नटखट सी
तुम अनुभावों के आहत दाग,
आज खड़ी तुम समय ‘शील’ पर
ठिटक-ठिटक कर करती हास
अनुभवों के चषक बेंच
क्या करती जीवा का उपहास,
अरी मानिनी नव-वधु सी तुम
अवगुंठन से झांक-झांक
आतुर जीवन से कर रही
आज खड़ी मीठा परिहास;
विश्वासों स्वर्ण शलाका
गहरे रंग लगी भरने
उषा सी यूँ क्षितिज पार
थी लगी कल्पना जग रचने,
विश्वासों की अर्थ भरी
श्वासों से यूँ कुछ गिरता था
मुट्ठी भर सिन्दूर आज यूँ
फेंका किसने लगता था,
अरि मानिनी आज खड़ी तुम
खोज रही बीती घड़ियाँ
या बोलो तुम चली जोड़ने
जीवन की बिखरी कड़ियाँ,
यह छोटा सा रहस्य आज
बस रहस्य बना ही रहने दो
अनुभूति को अनुभूति ही
आज बनी तुम रहने दो

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-स्नेह सिंघवी

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