प्रेम गीत
मन की गहराई में
आँखों के द्वारों से
तुमने चुपचाप अनजानें में
मेरे भावों के कोनों को छू कर
है आज विवश सी बांधी
मेरे जीवन की लहरें
जो ऊँची और नीची बिखरीं
तट से टकराती
फिर सरवर की गहराई में
सहज लीन हो जाती,
तुमने उन लहरों को जैसे
आज है बांधा
उमड़ते सागर सा मन मेरा
शांत उदधि सा ठहरा,
तुम विश्वास की मूरत
तुम सुन्दरता की सीमा
पूजता हे मन बंद कर
आँखों के दो द्वार
प्राणों ने,
शब्दों की भाषा ने
कुछ कहना सुनना चाहा
पर आँखों की भाषा के आगे
शब्दों की भाषा ने
चुपचाप हार हे मानी
चुपचाप हार हे मानी
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-स्नेह सिंघवी