सुनीता शर्मा
सुनीता शर्मा नाम : डॉ. सुनीता शर्मा शिक्षा : डिप्लोमा इन अर्ली चाइल्ड एजुकेशन, न्यूजीलैंड पीएचडी : डॉ भीमराव अंबेडकर यूनिवर्सिटी, आगरा, विषय : कृष्णा सोबती युगबोध एवं मूल्य संक्रमण…
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सुनीता शर्मा नाम : डॉ. सुनीता शर्मा शिक्षा : डिप्लोमा इन अर्ली चाइल्ड एजुकेशन, न्यूजीलैंड पीएचडी : डॉ भीमराव अंबेडकर यूनिवर्सिटी, आगरा, विषय : कृष्णा सोबती युगबोध एवं मूल्य संक्रमण…
प्रवासी भारतीय तू…! प्रवासी भारतीय तूअपनी पैतृक जड़ों से यूं जुड़ तूभेड़ बकरी की तरहमत कर अंधानुकरण यूँ..अदम्य साहस, समर्पण, धैर्य सेलिख अपनी नई दास्तां तू..प्रवासी भारतीय तू… किसी भौगोलिक…
नदी हँस समुद्र ने पूछा यूँमुझसे प्रश्न कई बार-ज्यूँवाह से आह तक ..तूआह से वाह तक.. क्यूँ नदी-धारा-मीठी-सी-तूअपने गीले-मीठे-होठों को यूँक्यूँ नमकीन करने चली आती तू ..? अपने प्रेमी-पर्वत को…
अधूरी कविता बस एक अधूरी कवितासुनानी है तुम्हें..शब्द -निशब्द सेबोलती खामोशी कोशायद पढ़ सके हम जहां..बस वही एक अधूरी कविता.. ख्वाहिशें पिघलती हुईबढ़ती आंखों की नमीशब्दों की रूह कहींदिल में…
आहिस्ता-आहिस्ता दर्द के बिस्तर परखामोशी की चादर तानमोहब्बतें चांद का उगनादेखते रहे हम आहिस्ता-आहिस्ता पिघलती हुई ख्वाहिशों कीचांदनी में..तारों ने सूनी सीशहनाई यूँ कहीं बजाई..!सुनते रहे जिसे हम आहिस्ता-आहिस्ता ख्याल…
वह क्यूँ..? अजीब कशमकशज़िंदगी की..थी, मंजिल की तलाशमें, मैं कहीं..! तुम क्या मिलेखुद में कहीं खुदतुमको ढूंढते ढूंढते..खुद मे जैसे खुदा ढूंढना हो ऐसेइबादत बन गया…! यूं तो तलाश मेरी…
लम्हा.. लम्हा..! लम्हा-लम्हा यूं कटता रहावक्त हाथों से ज्यूँ फिसलता गया ..! न जाने क्यूँ हमने वक्तको, वक़्त से देकर वक़्तवक़्त से ही यूँ खरीद लिया ..! ऐसी बेची जाने…
मिट्टी खेलते-खेलते तुम से हीखाते-खाते मिट्टीतुम कब बन गईंसबसे अच्छी दोस्त मेरी..! लिबास पर बिखरीकेशविन्यास पर चिपकीहथेलियों में रमीतो मेरी रूह में कहीं जमी…! जाना कहीं मैंने यूँ हीतुझमें डूबने…
वज्रपात कल्पनातीत कालातीतसभा में खड़ी सोचरही हूं मैं…हे माँ कुंती !तुमने मुझे क्या से क्याबना डालाकहां से कहां ला डाला..!! ‘बांट लो’ -कहते ही तुमनेमेरा वर्तमान – भविष्यपतनागर्त कर डालातुमने…
बनजारन जीवन-रेगिस्तान मेंमरीचिका-प्रेम ढूढ़नेबनजारन-मैं…रोज़ करती हूं तयरेत-भरा-मीलों सफर …!! टांग-सूरज-बालों मेंटाँक चांद-दुपट्टे मेंनव-यौवन को ढकती, चुनरी सेपसीने से उजागर होते, अधरश्वेत-चांदनी पहन-ओढ़भटकती हूं रात-दिन-कहीं- मैंइस बंजर जमीन पर…!! कभी-कहीं-कब-क्या मैंप्यास-जल-खुद…
जिंदगी तुझसे यूं.. जिंदगी तुझसे यूं गुफ्तगू करते रहेक्रेडिट कार्ड के जमाने में जैसेकहीं रिश्तों के भरे बटुए सेरुपया-अठन्नी से निकले-तजुर्बेपाकर, भी क्यूँ नादान सेजख्मों पर खुद ही अपनेकहीं नमक…